Best Srimad Bhagavad Gita in hindi in detail – श्रीमदभगवदगीता के 18 अध्याय

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तेरहवाँ अध्याय (13th chapter of Bhagavad Gita online in Hindi)

Geeta ka 13 adhyay | Bhagavad Gita chapter 13 | गीता का तेरहवाँ अध्याय | Bhagwat Geeta ka 13 adhyay

श्रीकृष्ण जी फिर अर्जुन की ओर देखते हुए बोले – हे अर्जुन – यह शरीर तो एक खेत है । इसमें जैसा भी बीज डालोंगे वैसा ही फल काटोगे। जो इस बात को जानता है उसे लोग ज्ञानी कहते हैं। यह क्षेत्र भी खेत जैसा ही है। यह क्षेत्र जो है जैसा भी है तथा जिन विचारों वाला है, जिस कारण से है जो हुआ है तथा वह क्षेत्र भी जिस प्रभाववाला है यह सब संक्षेप में तुम्हें बताता हूँ।

यह क्षेत्र और क्षेत्र का तत्त्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है तथा अच्छी प्रकार से मिश्रण किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी वैसे ही कहा गया है।

हे अर्जुन – वही मैं तुम्हें बताता हूँ। पाँच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) का सूक्ष्मभाव अहंकार बुद्धि और मूल प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया तथा इस इंन्द्रिया (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और ध्राण एवं वाक् हस्त, पाद, उपस्थ मन) और पांच इन्द्रियों के द्वेष, सुख-दुख और स्थूल शरीर का पिंड एवं चेतना और धृति। इस कारण से यह क्षेत्र विकारों से रहित संक्षेप में कहा गया है जिसका अर्थ इच्छादि क्षेत्र का विकास समझना चाहिए।

पुत्र, औरत, घर और धनादि में आसक्ति का अभाव और ममता का होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चिंता सम रहना अर्थात् मन के अनुकूल तथा प्रतिकूल प्राप्त होने पर खुशी दुःख आदि विकारों का न होना।

हे धनंजय – जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर प्राणी ईश्वर को पा लेता है तब उसे स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ वह आदि रहित परब्रह्म अकथनीय होने से न सत्य कहा जाता है और न असत्य परन्तु वह सब ओर से हाथ-पाँव वाला एवं सब ओर से नेत्र, सिर और मुँहवाला तथा सब ओर से क्षेत्रवाला है । क्योंकि वह संसार में सबकों व्याप्त करके स्थित है परन्तु वास्तव में इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है । परन्तु वास्तव में इन्द्रियों से रहित है । आसक्ति रहित और गुणों से अतीत हुआ भी अपनी योगमाया से सबका पालन-पोषण करता है।

वह परमपिता चराचर सब भूतों के बाहर भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर रूप भी वही है और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञीय है तथा बहुत निकट और दूर में भी स्थित वही है और वह विभाग सहित एक रूप से आकाश से सहश परिपूर्ण हुआ भी चराचर सम्पूर्ण भूत में अलग-अलग सदृश प्रतीत होता है।

यह जानने योग्य ईश्वर विष्णु रूप से भूतों को धारण पोषण करनेवाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मरूप से सबको उत्पन्न करने वाला है ।

यह ब्रह्म ज्योतियों की ज्योति एवं माया से अतिदूर कहा जाता है

तथा वह परमात्मा के बोध स्वरूप और जानने योग्य है और तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला ओर सबके दिलों में विराजमान है।

हे धनंजय – इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप में कहा गया है । इसको तत्व से जानकर मेरा भक्त मेरे स्वरूप को पा लेता है।

हे अर्जुन – प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी मेरी माया और जीवात्मा यानि नक्षत्र इन दोनों को ही तुम अनादि जानकर और राग द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक, सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो, क्योंकि कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है । जीवात्मा सुख दुख भोगने में हेतु कहा जाता परन्तु प्रकृति में स्थित हुआ ही प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है और इन गुणों से सदा अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

वास्तव में तो यह प्राणी इस शरीर में स्थित हुआ भी त्रिगुणमयी माया से सर्वथा अतीत ही है । केवल साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्पत्ति देने वाला होने से अनुमता एवं सबको धारण करने वाला होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्द होने से परमात्मा कहा गया है । इस प्रकार प्राणी और गुणों के सहित प्रकृति को जो भी प्राणी.तत्व से जानता है वह सब प्रकार से कार्य करता हुआ भी फिर से जन्म नहीं लेता अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता।

हे अर्जुन – अनादि होने से और गुणहीन होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है और यह लिपायमान होता है।

जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण विलायमान नहीं होता, वैसे ही सर्वत्र शरीर में स्थिर हुई आत्मा गुणातीत होने के कारण शरीर के गुणों में लिपायमान नहीं होती है।

हे अर्जुन – जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सारे संसार को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आत्मा सारे क्षेत्र को प्रकाशित करती है। इसी आत्मा से प्राणी को ज्ञान प्राप्त होता है और जीवन के अंधेरे मिट जाते हैं।

इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में भेद को तथा विकार सहित प्रकृति से छूटने के उपाय जो भी प्राणी ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं वे महाआत्मजन परमपिता परमात्मा को पा लेते हैं।


चौदहवाँ अध्याय (14th chapter of Bhagavad Gita online in Hindi)

Geeta ka 14 adhyay | Bhagavad Gita chapter 14 | गीता का चौदहवाँ अध्याय | Bhagwat Geeta ka 14 adhyay | Bhagavad Gita chapter 14 summary

श्रीकृष्ण जी बोले – हे अर्जुन ! ज्ञान से भी अति उत्तम परम ज्ञान को तुम्हें बताता हूँ। जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परमसिद्धि को प्राप्त होते हैं।

इस ज्ञान को पाकर मेरे स्वरूप को जानने वाले प्राणी सृष्टि आदि में पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी चिंतित नहीं होते, क्योंकि वे केवल मेरा (ईश्वर) पूजन करते हैं और मेरे सिवाय वे किसी चीज की उपासना नहीं करते।

मेरा महान ब्रह्म रूप, प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमय माया सम्पूर्ण भूतों की योनि है, यानि गर्भ धारण करने का स्थान है और मैं ही वह शक्ति दूँगा। इन योनियों में मैं चेतन रूप बीज को धारण करता हूँ। उस जड़ चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।

हे अर्जुन – तमोगुण बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अंधकार एवं कर्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद, व्यर्थ चेष्टा और निद्रा करण की मोहिनी वृत्तियाँ, यह सब उत्पन्न होती हैं।

जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होती है तब उत्तम कर्मकरने वालों को स्वर्ग प्राप्त होता है।

रजोगुण के बढ़ने पर उस काल में मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों को आसक्ति वाले प्राणियों में पैदा होता है तथा तमोगुण बढ़ने पर मरा हुआ प्राणी, कीट, पशु आदि मूढ़ योनियों में पैदा होता है।

सात्विक कर्म का सुख तो ज्ञान और वैराग्य आदि निर्मल फल कहे जाते हैं । सत्वगुण से ज्ञान पैदा होता है और रजोगुण से लाभ पैदा होता है, तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह पैदा होता है जिससे अज्ञान पैदा होता है । इसलिए सत्वगुण में स्थित हुए प्राणी स्वर्ग लोक में जाते हैं । और रजोगुण में स्थित प्राणी इसी धरती पर बार-बार जन्म लेते रहते हैं।

तमोगुण रूप में निद्रा, प्रमाद, विषय विकार, लालच और आलस्य आदि में स्थित हुए तमाम प्राणी, पशु, पक्षी योनियों में पैदा होते हैं।

हे अर्जुन – जिस काल में निद्रा अर्थात् समष्टि चेतन में एकीभाव से स्थित हुआ प्राणी तीनों गुणों को सिवाय अपने किसी अन्य को नहीं देखता और अपने आप पर पूर्ण काबू पाकर मेरा ध्यान करता है।

वह तीनों गुणों से युक्त सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त होता है अर्थात् वह मुझे पा लेता है तथा यह पुरुष स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप तीनों गुणों का उल्लंघन करके जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुखों के रहस्ययुक्त वचनों को सुनकर अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा-हे प्रभु इन तीनों गुणों से युक्त हुआ प्राणी किन-किन लक्ष्णों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है, तथा वह प्राणी किस उपाय से इन तीनों से अतीत होता है।

प्रिय अर्जुन – जिसके वश में अध्यकरण है ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला प्राणी तो नि:संदेह न कर्ता होता है और न ही करवाता हुआ नौ द्वारों वाले शरीर रूपी घर में सारे कर्मों को मन से त्यागकर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्द परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है। परमेश्वर भी भत प्राणियों के न कर्त्तापन को और न कर्मों को तथा न ही कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में रचता है किन्तु परमात्मा के प्रभाव से प्रकृति ही बरतती है अर्थात् गुण ही गुण बने रहे हैं।

सर्वव्यापी ईश्वर न किसी के पास कर्म को और न किसी अच्छे कर्म को ही ग्रहण करता है किन्तु माया द्वारा ज्ञान ढका हुआ है।

इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं परन्तु जिनका यह अन्तः करण का अज्ञान आत्मा द्वारा नाश हो गया है उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृशय सच्चिदान्दघन परमात्मा को प्रकाश में लाना है।

ऐसे वे ज्ञानी जन जिनकी विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते, चाण्डाल में भी सम्भाव से ही देखते होते हैं । इसलिए जिनका मन समत्व भाव में स्थित है उन्होंने तो उसके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संसार जीत लिया है क्योंकि ईश्वर निर्दोष और सम है । इससे संसार का स्वामी ईश्वर ही स्थित है।

जो प्राणी अपने प्रिय को पाकर खुश नहीं होता और अप्रिय को प्राप्त कर उर्द्धगवान नहीं होता ऐसा स्थित बुद्धि संशय रहित ब्रह्मवेत्ता प्राणी ईश्वर में नित्य स्थित है।

हे भक्त – जो प्राणी सत्वगुण के कार्य रूप प्रकाश और रजोगुण के कार्य रूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्य रूप मोह को भी न तो प्रवृत्ति होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है तथा जो साक्षी के संदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और केवल गुण ही गुण में प्रयोग करते है, ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता।

जो आत्म भाव में स्थित हुआ सुख दुख को समान समझने वाला है तथा मिट्टी, पत्थर और सुकर्म में समान भावना रखने वाला और धैर्यवान है तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निन्दा प्रशंसा में भी समान भाव वाला है तथा जो मान अपमान को समान समझता है और मित्र तथा शत्रु के बारे में भी कोई अन्तर नहीं समझता है । वह सम्पूर्ण आरम्भों में कर्त्तापन अभिमान से रहित हुआ प्राणी गुणातीत कहा जाता है।

जो प्राणी अव्याभिचारी भक्ति रूप यौन के द्वारा मेरे को निरन्तर याद करते हैं, मेरी उपासना में खोए रहते हैं, वे लोग हर प्रकार की बाधाओं को पार करे मुझे प्राप्त कर लेते हैं, अर्थात् ईश्वर को पाने का सौभाग्य प्राप्त होता है।

हे Gandhiva अर्जुन उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का नित्य धर्म का और अखण्ड एक रस आनन्द का मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् उपयुक्त बदा अमत अव्यय और शाश्वत धर्म तथा एकान्तिक सुख यह सब मेरे ही नाम हैं। इसलिए इनका मैं परम आश्रय हूँ।


पन्द्रहवाँ अध्याय (15th chapter of Bhagavad Gita online in Hindi)

Geeta ka 15 adhyay | Bhagavad Gita chapter 15 | गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय | Bhagwat Geeta ka 15 adhyay | Bhagavad Gita chapter 15 summary

श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन के भोले भाले चेहरे की ओर देखकर बोले – हे अर्जुन ! आदि पुरूष परमेश्वर रूप (आदि पुरूष नारायण बसुदेव भगवान ही नित्य हैं) और ब्रह्म रूप मुख्य ज्ञान वाले जिस रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं । उस संसार रूपी वृक्ष को जो प्राणी मल रहित त्व से जानता है वो वेद का तात्पर्य जानने वाला है।

परन्तु इस संसार में वृक्ष का रूप जैसा है वैसा यहाँ चिरकाल में नहीं पाया जाता है क्योंकि न तो इसका आदि और अन्त तथा न अच्छी प्रकार से स्थित ही है।

इसलिए इस ममता और वाष्प रूप अति दृढ़ वाले संसार रूपी पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप शास्त्र द्वारा काटकर उसके पश्चात उस परमपद रूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार तलाश करा चाहिए कि जिसमें गये हुए प्राणी फिर पीछे संसार की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुए हैं, उसी आदि पुरुष नारायण की शण में मैं हूँ । इस प्रकार दृढ़ निश्चय कर नष्ट हो गया है, मन और मोह जिनकी जीत लिया है । आसक्ति रूप दोष जिनके और परमात्मा के स्वरूप हैं, निरन्तर स्थिति जिनकी अच्छी प्रकार से नष्ट हो गई है, जिनकी ऐसी सुख दुख नामक द्वन्द्वों से विभक्त हुए ज्ञानी जन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं।

उस अपने आप प्रकाश देने वाले परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा प्रकाशित कर सकता है । और अन्य प्रकाशित कर सकता है तथा जिस ईश्वर को पाकर प्राणी इस संसार से मुक्त होता है वही मेरा परमधाम है।

श्रीमद् भागवत गीता हे अर्जुन ! इस शरीर में यह जीवात्मा के राही अंश हैं और वही इस त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पाँचों इन्द्रियों को आकृर्षित करता है। – जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है वैसे ही देहादिक स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्याग देता है उससे इस मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है।

उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा तथा रसना घ्राण और मन को आश्रय करके सहारे से ही विषय को सेवन करता है परन्तु शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर स्थित हुए विषयों को भी भोगते हुए अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी लोग नहीं पहचानते हैं । केवल ज्ञानजन जानते हैं । क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुई उस आत्मा को यत्न करते हुए तत्व से जानते हैं।

जिन्होंने अपने अन्त: करणं को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे ज्ञानीजन यत्न करते हुए भी इस आत्मा को शुद्ध नहीं कर पाते है।

हे अर्जुन ! जो प्रकाश सूर्य में है वह सारे जगत को प्रकाशित करता है तथा जो प्रकाश चन्द्रमा में है और जो तेज आग के अन्दर हैं उनको तुम मेरा ही रूप जानो । वे सब प्रकाश मेरे हैं और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और स्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को पुष्ट करता हूँ।

मैं ही प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वतन अग्नि रूप होकर प्रपा और अपान से युक्त होकर उनको पचाता हूँ।

मेरे से ही स्मृति ज्ञान और उपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही बनाने योग्य हूँ तथा वेदों का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।

हे धनुर्धर ! इस संसार में नाशवान मिटनेवाले और अमर अविनाशी भी यह दो प्रकार के प्राणी हैं। उनमें सारे भूत प्राणियों के शरीर तो मिटने वाले हैं और जीवात्मा अमर है । वह कभी नहीं मिटती।

उन दोनों से उत्तम पुरूष तो अन्य ही है जो तीनों लोकों में प्रवेश करे सबका पालन-पोषण करते हैं उसे ही ईश्वर कहा गया है। वही परमेश्वर है। वही मैं हूँ।

मैं नाशवान जड़ वर्ग क्षेत्र से सर्वथा अतीत हूँ और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा से भी बदतर से भी उत्तम हूँ इसलिए तीनों लोक में और वेद में मैं पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।

हे अर्जुन ! इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी प्राणी मुझे पुरुषोत्तम जानता है वह सर्वत्र सब प्रकार से निरन्तर मुझे (वसुदेव ईश्वर) भजता है । वह मेरी ही उपासना करता है।

हे अर्जुन ! यह अति रहस्य युक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है । यानि उसे करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता है।


सोलहवाँ अध्याय (16th chapter of Bhagavad Gita online in Hindi)

Geeta ka 16 adhyay | Bhagavad Gita chapter 16 | गीता का सोलहवाँ अध्याय | Bhagwat Geeta ka 16 adhyay | Bhagavad Gita chapter 16 summary

श्रीकृष्ण जी कहने लगे हे अर्जुन ! देव सम्पदा जिन प्राणियों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी सम्पदा प्राप्त है, उनको लक्षणअलग-अलग तुम्हें बताता हूँ

देव सम्पदा वाले व्यक्तियों में सर्वथा भय का अभाव, अन्तः करण की पूरी तरह से सफाई, शुद्धि तत्व ज्ञान के लिए स्थान योग से निरन्तर दृढ़ता और सात्विक दान तथा इन्द्रियों का दमन, भगवत पूजा और अग्निहोत्री ही उत्तम कर्मों का आचरण एवं शरीर और इन्द्रियों सहित अन्तःकरण की सरलता पाई जाती हैं।

मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना तथा सत्य, मीठे बोलों और मधुर वाणी से अपने शत्रु का भी मन जीत लने वाले, कर्मों में कर्त्तापन के अभिमान का त्याग एवं अन्तःकरण का उपरमता अथवा चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की निन्दा

न करनातथा सब भूतों के प्राणियों में हेतु रहित दया, इन्द्रियों पर पर्ण काब और विषय विकार से छूट की शक्ति प्राप्त कर लेना उनका गण होता है।

तेज, क्षमा, धैर्य, भीतर और बाहर से पूर्ण शुद्धि एवं किसी से भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव, यह सब दैवी सम्पदा को प्राप्त करने वाले लक्षण हैं।

पाखण्ड ओर अभिमान तथा क्रोध और कटुवाणी तथा अज्ञान वाणी, यह सब आसुरी सम्पदा वाले प्राणियों के लक्षण हैं।

इन दोनों प्रकार की सम्पदाओं में दैवी सम्पदा तो मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा लोक बन्दन के लिए मानी गई हैं । इसलिए तुम उदास क्यों होते हो, तुम तो दैवी सम्पदा के उपासक हो।

हे मधुसूदन ! इसमें कोई संदह नहीं कि यह मन बहुत चंचल और ‘ बड़ी कठिनाई से वश में आने वाला है परन्तु अपने आप पर काबू पने, मन को दृढ़ करने और योग साधना करने से तथा वैराग्य से इसका में वश में करना चाहिए। जिस प्राणी का मन वश में नहीं है उसे योग प्राप्त होना कठिन है और स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील मनुष्यों द्वारा साधन से मन पर काबू पाना सहज है, ऐसा मेरा मत है।

हे केशव ! मेरा मन योग से चलायमान हो गया है । जिसका मन शिथिल यन्त्रवाल श्रद्धायुक्त पुरुष न होकर किस गति को प्राप्त होता

हे अर्जुन ! ऐसी प्राणी दम्भी और मदमस्त हुए कसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का सहारा लेकर तथा अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त इस संसार में खोए रहते हैं।

वे मृत्यु के पश्चात् रहनेवाली अनन्त चिन्ताओं का आश्रय लेकर विषय भोगों को भोगने में तत्पर हुए एवं इतना मात्र ही आनन्द लेने वाले हैं । इसलिए आशा रूपी सैंकड़ों फाँसियों में बँधे हुए काम क्रोध के परायण हुए विषय भोगों की पूर्ति से अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं ।

उन पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त करूँगा तथा मेरे पास इतना धन है और फिर भी यह होगा । वह शत्रु मेरे द्वारा गया और यह होगा। अपने शत्रुओं को भी मैं मारूँगा तथा ईश्वर और ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ आर सब सिद्धान्तों से युक्त एवं बलवान और सुखी हूँ।

मैं बहुत बड़ा धनवान हूँ और मेरा परिवार बहुत बड़ा है । मेरे जैसा और कोई दूसरा नहीं है, मैं यज्ञ करूँगा, मैं दान करूँगा, इस प्रकार मुझे खुशी प्राप्त होगी।

इस प्रकार वे कई प्रकार से भ्रमित हुए बिना अज्ञानी जन मोह जाल में फंसे हुए एवं विायों में अत्यन्त आसक्त हुए अपवित्र नरक में गिरते हैं । वे अपने को श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी धन और मन के मद से युक्त हुए शास्त्रविधि से रहित केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से जान पड़ते हैं।

वे अहंकार, बल, गर्व, कामना और क्रोधादि से परायण हुएव एवं दूसरों की निन्दा करने वाले हैं। ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूर कर्मों पराधर्मों को संसार में बार-बार असुर योनियों में जन्म लेना पड़ता है अर्थात् शूकर कूकर आदि नीच योनियों में जन्म लेना पड़ता है।

इसलिए हे अर्जुन ! ऐसे मूढ़ व्यक्ति बार-बार असुर योनियों में पैदा होते हैं। वे मुझे प्राप्त न होकर नीच से नीच योनि को प्राप्त होते हैं अर्थात् वे नरक में कष्ट भोगते हैं।

वे काम, क्रोध और लोभ इन तीन प्रकार के नरक के द्वारा आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात् अधोगति में ले जाने वाले हैं। इसलिए. इन तीनों काम, क्रोध और लोभ को त्याग देने में ही भलाई है।

इससे वह परम गति को पाता है यानि वह मुझे पा लेता है । जो व्यक्ति शास्त्र की विधि को टालकर अपनी इच्छा से प्रयोग करता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न ही परमगति को तथा न सुख को ही पाता है।

इससे तुम्हारे लिए कर्त्तव्य, व्यस्था में शीघ्र ही उन्नति है ऐसा जानकर तुम शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्म को करो।


सत्रहवाँ अध्याय (17th chapter of Bhagavad Gita online in Hindi)

Geeta ka 17 adhyay | Bhagavad Gita chapter 17 | गीता का सोलहवाँ अध्याय | Bhagwat Geeta ka 17 adhyay | Bhagavad Gita chapter 17 summary

भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर अर्जुन बोला – हे प्रभु ! जो शास्त्र विधि को त्यागकर केवल श्रद्धा से युक्त देवताओं का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति क्या होती है ? इस विषय में मुझे बताएँ।

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण जी बोले-हे अर्जुन ! बिना शास्त्रीय संस्कारों के मनुष्य की बुद्धि स्वभाव से सात्विक, राजसी या तामसी होती है । इसके बारे में मैं तुम्हें बताता हूँ-सभी मनुष्यों में श्रद्धा उनके अन्तः करण के अनुरूप होती है तथा वह प्राणी श्रद्धामय है। इसलिए जो भी प्राणी जैसी श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है, अर्थात् जैसी उसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका स्वरूप है। उनमें सात्विक प्राणी तो देवों को पूजते हैं और राजस पुरूष यज्ञ और राक्षसों को पूजते हैं।

हे अर्जुन ! जो मनुष्य विद्या हीन रहते हैं और केवल कल्पित घोर तप में लगे रहते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना आसक्ति और बल के अभिमान में रहते हैं।

हे अर्जुन ! जैसे श्रद्धा तीन प्रकार की होती है वैसे ही भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति अनुसार तीन प्रकार से प्रिय होता है । वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। इन भेदों को मैं तुम्हें बताता हूँ।

आयु, बुद्धि और बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले एवं रसयुक्त चिकने स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से मन को प्रिय आहार अर्थात भोजन करने से पदार्थ सात्विक पुरूषों को प्रिय होते है।

जो भोजन अधपका, रस रहित, दुर्गन्ध युक्त एवं बासी और अच्छिष्ट होता है वह भोजन तामस पुरूषों को प्रिय होता है।

हे अर्जुन ! जो यज्ञ शास्त्र विधि से नियत किया हुआ है तथा यज्ञ करना ही कर्तव्य है, ऐसा मन को समाधान करके पल को न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है वह यज्ञ सात्विक कहलाता है । जो यज केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल के लिए किया जाता है, उस यज्ञ को राजस यज्ञ कहते हैं। । शास्त्र विधि से हीन और अन्नदान से रहित एवं बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के लिए किए हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।

देवता, ब्राह्मण और ज्ञानी जनों की पूजा एवं सफलता, पवित्रता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, इस शरीर का तप कहा जाता है तथा जो प्रिय हितकारक एवं यर्था भाषण देने वाला, सच बोलने वाला है, जो वेद शास्त्रों को पढ़ने वाला है और ईश्वर भक्ति करता है, उसे हम वाणी संबंधी तप कहते हैं।

मन की खुशी और शान्ति भाव एवं भगवत चिंतन करने का स्वभाव मन का निग्रह और अन्तः करण की पवित्रता यह मन संबंधी तप कहा जाता है।

फल को न चाहने वाले निष्कामी योगी पुरूषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए पूर्वाक्त तीन प्रकार के तप को सात्विक कहते हैं । ऐसा कहा जाता है कि यज्ञ, तप और दान में जो स्थित है वह सत्य है और परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चय पूर्वक तप है।

हे अर्जुन ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन तथा किया हुआ दान एवं तप तथा कुछ भी किया हुआ कर्म असत् कहा जाता है ।

इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न ही मरने के पश्चात् लाभदायक है । इसलिए प्राणी को चाहिए कि सच्चिदानन्धन परमात्मा केनाम का निरन्तर चिंतन करें, ईश्वर की उपासना करें। सच्चे मन से ईश्वर की पूजा, श्रद्धा से की हुई भक्ति का फल अच्छा ही मिलता है।

स्वार्थ के लिए की गई पूजा को मैं पूजा नहीं मानता।


अठारहवा अध्याय (18th chapter of Bhagavad Gita online in Hindi)

Geeta ka 18 adhyay | Bhagavad Gita chapter 18 | गीता का सोलहवाँ अध्याय | Bhagwat Geeta ka 18 adhyay | Bhagavad Gita chapter 18 summary

अर्जुन ने श्री कृष्णजी से कहा – हे प्रभु मैं सन्यास और त्याग के तत्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ। कृपा करके मुझे इस विषय में विस्तार पूर्वक बताइए।

हे अर्जुन ! कितने ही पंडित तो काम कर्मों के त्याग को जानते हैं । कितने ही विचारवान व्यक्ति सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं तथा कई विद्वान कहते हैं कि सभी कर्म द्वेष युक्त हैं इसलिए त्याग के योगय हैं । दूसरे विद्वानों का मत है कि यज्ञ दोनों तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।

जिस बुद्धि से प्राणी मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को ध गरण करता है । वह धारणा तो सत्व की है।

हे प्रथा पुत्र अर्जुन ! फल की इच्छा वाला प्राण जिस धारणा द्वारा धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है वह धारणा राजसी है।

दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धारणा के कारण निद्रा, भय ओर दुःख को भी नहीं छोड़ता, वह धारणा तामसी है।

हे अर्जुन ! सुख भी तीन प्रकार के हैं जो सुख में सार्थक, भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास में लगा रहता है और दुखों के अन्त को प्राप्त होता है वह सुख साधन के लिए संत के तुल्य है । वह सात्विक कहा गया है।

जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है वह मानव के लिए विष के समान होता है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है।

जो सुख भोग काल में और परिणाम में आत्मा को मोहने वाला है वह निद्रा, आलस और प्रमाद से पैदा हुआ सुख तामस कहा जाता है।

हे अर्जुन ! पृथ्वी अथवा देवताओं में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो तीनों गुणों से रहित है । इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों तथा शुद्रों को स्वभाव से पैदा हुए गुणों को विभक्त किया गया है । उनके अन्त:करण का निग्रह, इन्द्रियों का दमन, बाहर भीतर की शुद्धि, धर्म के लिए कष्ट सहन करना ब्राह्मण का स्वभाविक गुण है।

शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता, वीरता, धर्म कापालन करने वाला भत्रिय का गुण धर्म का पालन करना है।

खेती. गौपालन. विक्रय. रूप. सत्य व्यवहार वैश्य के कर्म हैं। सब वर्गों की सेवा करना शूद्र का कर्म है।

हे अर्जुन ! जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति होती है उसे कर्म द्वारा पूजन करके प्राणी परम सिद्ध प्राप्त करते हैं ।

प्राणी दोषमुक्त स्वभाविक कर्म को नहीं छोड़ता है। सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धिवाला और विजेयता प्राणी भी वैश्य कर्म सिद्धि को प्राप्त होता है।

इसलिए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए सिद्धान्त को प्राप्त हुआ पुरूष जैसे ब्रह्मा को प्राप्त कर लेता है उसको भी तुम मेरे से संक्षेप में जानो।

विशद्ध से यक्त एकांत और शद्धदेश का सेवन करने वाला मिथ्याचारी होते हुए मन वाणी और दृढ़ वैराग्य को भली भाँति प्राप्त हुआ प्राणी और अन्तःकरण को वश में करके विषय भोग को त्यागकर क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार को छोड़ दे तो वह मुझे बहुत प्यारा लगता है । वही मेरा सच्चा भक्त है।

निष्काम कर्म योगी सम्पूर्ण कर्म को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन, अविनाशी परमपद को प्राप्त होता है।

इसलिए हे अर्जुन ! सर्वधर्म को अर्थात सम्पूर्ण कर्मों के आश्रय को त्यागकर केवल मुझ सच्चिदानन्द वासुदेव परमात्मा को ही अनन्य शरण को प्राप्त हो तुम्हें मैं सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा।

इस प्रकार Bhagawat Geeta का महात्म्य कहकर भगवान श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन से पूछा हे अर्जुन ! क्या यह मेरा उपेदश तुमने एकाग्रचित होकर सुना है ? क्या तुम्हारा अज्ञान से पैदा हुआ मोह नष्ट हो गया है?

अर्जुन बोला – हे प्रभु ! आपके ज्ञान प्रकाश से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मैंने माया रूपी जाल के सारे बन्धन काट दिए हैं। अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।

धन्य हो पांडव पुत्र अर्जुन, तुम महाभारत के सबसे बड़े वीर बनकर इतिहास में अमर रहोगे।

इतनी कथा सुनाते हुए संजय धृतराष्ट्र से बोला

हे राजन ! मैंने अर्जुन और श्रीकृष्ण जी के अद्भुत रहस्यमयी सभी वचनों को सुना और श्रीव्यास की कृपा से दिव्य शक्ति द्वारा मैंने परम रहस्य युक्त गोपनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।

हे राजन ! श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के इस कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः पुनः समण कर मैं बार-बार खुश होता हूँ।

हे राजन ! विशेष क्या कहूँ, जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान और गांडीवधारी अर्जुन हैं वहीं पर परम विभूति और अचल नीति है। ऐसा मेरा मत है, यह कहकर संजय ने अपनी बात समाप्त कर दी।


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