कबीरदास जी का जीवन परिचय – Kabir Das Biography
कबीर दास का जीवन परिचय महान कवि एवं समाज सुधारक महात्मा कबीर का जन्म काशी में सन् 1398 ई० के लगभग हुआ। वे एक दम्पत्ति को तालाब के किनारे पड़े मिले थे। वहाँ से नीरू – नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने इनको उठा लिया और अपने पुत्र के समान पालन – पोषण किया। इनका विवाह “लोई’ नामक स्त्री के साथ हुआ था । इनके कमाल और कमाली नाम की दो सन्तानें पैदा हुई।
इन पर बचपन से ही हिन्दु और मुसलमान दोनों धर्मों के संस्कार पड़े थे । कबीर का लालन-पालन एक मुस्लिम जुलाहे के घर में हुआ था। काम भी जुलाहे का करते थे । फिर भी राम नाम जपा करते थे। एक बार काशी में स्वामी रामानन्द आये हुये थे। वे राम की महिमा का प्रचार करते थे । रात्रि में कबीर गंगास्नान करने उसी घाट पर गये जहाँ स्वामी रामानन्द स्नान किया करते थे। अंधेरे में स्वामीजी का पैर कबीर पर पड़ गया । वे बोले, ‘राम नाम कह’ इसी कथन को कबीर ने अपना गुरु मंत्र मान लिया । वे तभी से रामानन्द को अपना गुरु मानने लगे।
कबीर पढ़े लिखे नहीं थे । पर इनमें अद्भुत काव्य-प्रतिभा थी। कबीर का धर्म मानव-धर्म था । वे मन्दिर, तीर्थाटन, माला, नमाज, पूजा-पाठ आदि को आडम्बर मानते थे। वे साधुओं की संगति करते थे । उनका बड़प्पन इसी में था कि उन्होंने हिन्दु और मुसलमानों में प्रेम बढ़ाने की चेष्टा की । वे कहते थे कि “दोनों का ईश्वर एक है। वह चाहे जिस नाम से पुकारा जाये । आपस में झगड़ा करना मूर्खता है।” वे अपनी बात सीधी सादी भाषा में कहते थे।
आपने अपनी रचनाओं द्वारा हिन्दू-मुसलमानों को एक करने का भरसक प्रयत्न किया।
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Kabir Das ke Dohe in Hindi – कबीरदास के दोहा और उनके अर्थ
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय ॥
तिनके को भी कभी छोटा नहीं समझना चाहिए, चाहे वह आपके पैर तले ही क्यों न हो क्योंकि यदि वह उड़कर आपकी आँखों में पड़ जाए तो बहुत कष्ट पहुँचाता है।
सतगुरु हम तूं रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥
सतगुरु ने प्रसन्न होकर हमें ज्ञान का उपदेश दिया। इस उपदेश से हमारे हृदय में व्यापक भक्ति का जन्म हुआ । भक्ति के इस बादल से प्रेम और स्नेह की वर्षा हुई जिससे हमारा एक-एक अंग सिक्त हो गया अर्थात् गुरु ईश्वर का ज्ञान कराता है, उसकी भक्ति से अनुपम सन्तोष की प्राप्ति होती है और मन प्रेममय हो जाता है।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय ॥
गुरु और ईश्वर दोनों मेरे सामने खड़े हैं, मैं किसके पाँव पहले पहूँ ? कबीर कहते हैं कि हमें सर्वप्रथम गुरु के ही चरण-स्पर्श करने चाहिए जिन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा हमें ईश्वर के दर्शन कराये अर्थात् हमारा मार्ग प्रशस्त किया
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ॥
कबीरदास जी कहते है। कि जब तक मेरे मन में अहंकार की भावना थी, तब तक मैं परमात्मा से दूर ही रहा । जब से ईश्वर ने मेरे हृदय में प्रवेश किया है, तब से मेरा अहंकार समाप्त हो गया है । आगे कबीर कहते हैं कि ज्ञानरूपी दीपक के प्रकाश से मेरे हृदय का अज्ञानरूपी अंधकार मिट गया है।
राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछ नाहिं ।
क्या ले गुरु संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥
कबीर कहते हैं कि मेरे गुरु ने जो मुझे राम नाम का उपदेश दिया है उसकी समानता कोई नहीं कर सकता । राम का नाम देकर गुरु ने मुझ पर उपकार किया है । उसके बदले में मैं उन्हें दक्षिणा के रूप में क्या दूँ? मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है । मेरे मन में निरन्तर यही अभिलाषा है कि मैं गुरु को क्या दूं, ताकि मुझे सन्तोष मिल सके।
ज्ञान प्रकास्या गुरु मिल्या, सो जिनि बीसरि जाई।
जब गोविन्द कृपा करी, तब गुरु मिलिया आई॥
kabir das ji कहते हैं कि सतगुरु के मिलने पर ज्ञान का प्रकाश फैल गया है । मेरी अभिलाषा है कि जिस गुरु ने मुझे ज्ञान दिया, वह मेरे हृदय से विस्मृत न हो जाये । कबीर का मत है कि मुझे सच्चा गुरु तभी प्राप्त हुआ जबकि मेरे ऊपर ईश्वर . की कृपा हुई।
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवें पड़त।
कहै कबीर गुरु ग्यान, एक आध उबरंत ॥
कबीर कहते हैं कि माया रूपी दीपक के सामने मनुष्य पतंगों के समान है । जिस प्रकार पतंगा दीपक को देखकर उसकी तरफ दौड़ता है और उसमें गिरकर जल जाता है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी माया के वशीभूत होकर अन्त में नष्ट हो जाता है। गुरु से ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य माया के इस बन्धन से छूट जाता है, किन्तु इस ज्ञान को प्राप्त करके भी कोई विरला व्यक्ति ही मायारूपी दीपक की आग में जलने से बच पाता है।
गुरु गोविन्द तौ एक है, दूजा यहु आकार।
आपा मेटत जीवत मरें, तौ पावै करतार॥
कबीर कहते हैं कि गुरु और ईश्वर वास्तव में एक ही हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं है । वास्तव में भौतिक शरीर उससे भिन्न है । अलग होने का कारण अहंकार है । यदि व्यक्ति अपने अहंकार को समाप्त कर दे तभी उसे ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है।
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय॥
कबीर जी कहते है कि दुःख में तो परमात्मा को सब याद करते हैं परन्तु सुख में कोई याद नहीं करता । जो इसे सुखं में भी याद करें तो दुःख का आगमन ही न हो।
माला फेरत जुग भया, फिरा ना मन को फेर।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ।।
कबीर जी कहते हैं कि माला फेरते-फेरते युग बीत गया फिर भी मन का कपट दूर नहीं हुआ । हे मनुष्य ! हाथ की माला छोड़कर अपने मनरूपी माला को फेराकर अर्थात् मन का सुधार कर।
साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ॥
kabir das ji कहते हैं कि हे ईश्वर ! तुम मुझे इतना दो कि जिसमें सारे कुटुम्ब का जीवन निर्वाह हो जाए और मैं भी भूखा न रहूँ और कोई साधु भी मेरे घर से भूखा ना जाए।
सुख में सुमिरन ना किया, दुःख में किया याद।
वह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि जिसने सुख में तो ईश्वर को कभी स्मरण किया नहीं और दुःख में याद किया ऐसे दास की प्रार्थना कौन सुने अर्थात् भगवान उसी की सुनते हैं जो सुख और दुःख में समान भाव से रहता है।
कबीर माला मनहिं की, और संसारी भीख।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥
कबीर जी कहते हैं कि माला तो मन की होती है, बाकि तो सब लोक दिखावा है । अगर माला फेरने से ईश्वर के दर्शन होते तो रहट के गले को देख, कितनी बार माला फिरती है उसे भगवान मिल जाते । अत॑मन के सुधार से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार।
मानुष से देवत किया, करत न लागी बार ॥
मैं बार-बार अपने गुरु की बलिहारी जाऊँ कि जिन्होंने थोड़े से प्रयत्न से ही मुझे मनुष्य से देवता बना दिया।
जाति न पछो साध की, पछि लीजिए जान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
किसी साधु से उसकी जाति मत पूछो अपितु उससे ज्ञान की बातें पूछो । जिस प्रकार तलवार का मूल्य पूछा जाता है म्यान का नहीं।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट॥
kabir das ji कहते हैं कि हे प्राणी इस जीवन में जितना हो सके ईश्वर का नाम ले लो, जब समय निकल जायेगा तो तू पछताएगा अर्थात् प्राण छूट जाने के पश्चात् ईश्वर का नाम कैसे जपेगा ?
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर हरि नाम बिनु, मुक्ति कैसे होय ॥
कबीर जी कहते है। कि हे मनुष्य ! प्रतिदिन के आठ पहर में से पाँच प्रहर तो तूने काम धन्धे में बिता दिये और तीन प्रहर सोकर बिता दिये । इस प्रकार तूने एक प्रहर भी हरि-भजन के लिये नहीं रखा फिर मोक्ष की प्राप्ति कैसे सम्भव है।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय॥
हे मन ! धीरे-धीरे सब कुछ हो जायेगा । माली सैकड़ों घड़े पानी पेड़ में देता है परन्तु फल ऋतु आने पर ही लगता है । अर्थात् धैर्य रखने से और समय आने पर ही सब काम बनते हैं।
कबीर ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
कबीर जी कहते हैं कि वे मनुष्य अन्धे हैं जो गुरु को ईश्वर से छोटा मानते हैं क्योंकि ईश्वर के रुष्ट होने पर गुरु का सहारा तो है परन्तु गुरु के रुष्ट होने के बाद कोई ठीकाना नहीं रहता।
कबीर ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
कबीर जी कहते हैं कि वे मनुष्य अन्धे हैं जो गुरु को ईश्वर से छोटा मानते हैं क्योंकि ईश्वर के रुष्ट होने पर गुरु का सहारा तो है परन्तु गुरु के रुष्ट होने के बाद कोई ठीकाना नहीं रहता।
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥
जहाँ दया है वहाँ धर्म है जहाँ लोभ है वहाँ पाप है, जहाँ क्रोध है वहीं काल है और जहाँ क्षमा है वहाँ तो स्वयं भगवान होते हैं।
क्षमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात ।
कहा विष्णु का घट गयो, भृगु ने मारी लात।।
छोटे चाहे जितनी गलतियाँ करें, परन्तु बड़ों को उनके प्रति क्षमा भाव रखना चाहिए । भगवान् विष्णु का क्या बिगड़ गया जो भृगु ने लात मार दी थी अर्थात् क्षमा में ही बड़प्पन है।
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥
जो शील स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया शीलवान (सदाचारी) व्यक्ति में ही आकर बसती है।
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी स्यान ।
कबीर जी कहते हैं कि हे प्राणी ! तेरे सोते रहने से कोई लाभ नहीं, अतः अपनी चेतना को जगाकर ईश्वर का भजन कर, क्योंकि जिस समय यमदूत तुझे पकडकर यमलोक ले जायेंगे तो तेरा यह शरीर म्यान के समान पड़ा रह जायेगा।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गया शरीर।
आशा तष्णा न मरी, कह गये दास कबीर ॥
कबीर जी कहते हैं कि मनुष्य का मन तथा उसमें । घुसी हुई माया का नाश नहीं होता है और न ही उसकी आशाएँ इच्छाएँ नष्ट होती हैं केवल दिखायी देने वाला शरीर ही मरता है । इसी कारण उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग।
और रसायन छाँड़ि के, नाग रसायन लाग।।
kabir das ji कहते हैं कि हे प्राणी ! उठ जाग, नींद तो मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू ईश्वर के नाम रूपी रसायन में मन लगा।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अनमोल था, कौड़ी बदले जाय ॥
रात सोकर गंवा दी और दिन खा-पीकर गँवा दिया। यह हीरे जैसा अनमोल मनुष्य शरीर कौड़ियों के मोल बदले जा रहा है अर्थात् हे मनुष्य ! जीवन को सार्थक बनाने के लिए ईश्वर का ध्यान कर।
माटी कहे कुम्हार से, तू क्यों रौंदे मोय ।
इक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥
मिट्टी कुम्हार से कहती है कि मुझे क्या रौंदता है। एक दिन ऐसा आएगा कि मैं ही तुझे रौंदूंगी अर्थात् मनुष्य के मरने के बाद उसका शरीर मिट्टी में मिल जाता है।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होयगी, बहुरी करेगा कब ॥
कबीर जी कहते है। कि हे मनुष्य ! जो काम कल करना है वो आज करो और जो काम आज करना है वह – अभी कर लो । क्षणभर में यदि प्रलय (मृत्यु) हो गई तो फिर बाकी पड़ा हुआ काम कब करेगा ?
आयें हैं सो जायेंगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जात जंजीर॥
जिसका जन्म हुआ है उसका मरना निश्चित है चाहे वह राजा हो या कंगाल । लेकिन एक तो सिंहासन पर जायेगा और एक जंजीरों में बँधा हुआ अर्थात् मनुष्य के साथ उसकी अच्छाई या बुराई ही साथ जाती है।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरी न लागे डार ॥
यह मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है और यह देह बार-बार नहीं मिलती । ठीक उसी प्रकार जैसे पेड़ से पत्ता झड़ जाने के बाद फिर डाल पर नहीं लग सकता है। अतः इस मनुष्य जीवन को सार्थक करो।
जो तोकू काटाँ बुवे, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल हैं, वाकू हैं त्रिशूल ॥
जो तेरे साथ बुराई करे तू उनके साथ भी अच्छाई कर अर्थात् हे मनुष्य तू सबके लिये भला कर । जो तेरे लिये बुरा करते हैं वह स्वयं अपने दुष्कर्मों का फल पायेंगे।
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥
माया और छाया एक समान है । इसे कोई-कोई ही जानता है, यह भागने वालों के पीछे ही भागती है परन्तु जो सम्मुख खड़ा होकर सामना करते हैं । तो वह स्वयं ही भाग जाती है।
जहां आपा तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥
kabir das ji कहते हैं कि जहाँ मनुष्य में अहंकार है उस पर आपत्तियाँ आने लग जाती हैं और जो शक करता है उसे रंज और चिन्ता जैसे रोग हो जाते हैं । इन चारों रोगों का इलाज धैर्य से सम्भव है।
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥
माँगना मरने के बराबर है, अत: किसी से भीख मत माँगो । सतगुरु की शिक्षा है कि माँगने से मर जाना बेहतर है अर्थात् हे मनुष्य ! पुरुषार्थ से प्रत्येक वस्तु प्राप्त करने के लिये सक्षम बन ।
दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय ।
बिना जीव की सांस सों, लोह भस्म हो जाय ॥
कमजोर को कभी नहीं सताना चाहिए। जिसकी हाय बहुत बड़ी होती है जैसा आपने देखा होगा कि निर्जीव खाल की धोंकनी की सांस से लोहा भी भस्म हो जाता है।
गारी ही सों ऊपजे, कलह, कष्ट और मींच।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नीच ॥
गाली अर्थात् दुर्वचनों से ही क्लेश, दुःख तथा मृत्यु उत्पन्न होते हैं । जो गाली सुनकर हार मानकर चला जाय वही सज्जन है, इसके विपरीत जो गाली देने के बदले में गाली देने लग जाता है वह नीच प्रकृति का है।
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन माँह ।
सांस-सांस सुमिरन करो और यतन कछु नाँह ॥
इस शरीर का क्या भरोसा है यह तो पल-पल में क्षीण होता जा रहा है अतः अपनी हर सांस पर ईश्वर का स्मरण करो यही मोक्ष प्राप्त करने का उपाय है।
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान।
सूरत सम्भल ए गाफिल, अपना आपा पहचान ॥
kabir das ji कहते हैं हे लापरवाह इन्सान ! तू चादर तान कर सो रहा है, अपनी चेतना को जगा और अपने को पहचान कि तू कौन है ? तथा किस काम के लिये तू इस संसार में जम्मा है ? अर्थात् स्वयं के अस्तित्व को जान और सत्यकार्यों में लग जा।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥
कबीरदास कहते हैं कि हमें मन से अहंकार को मिटाकर मधुर-वचन बोलने चाहिए जो सबको सुखकर लगते हैं और स्वयं को भी प्रसन्नता का अनुभव होता है।
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन छार।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥
कठोर वचन बोलना सबसे बुरा है क्योकि यह तन को जलाकर राख कर देते हैं और सज्जन की बात जल’ के समान है इससे अमृत वर्षा है और दूसरों को लाभ पहुँचता है।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥
यदि तुम्हारे मन में शान्ति है तो संसार में कोई तुम्हारा शत्र नहीं है। यदि तू अपने अहंकार को त्याग दे तो सब तम्हारी सहायता करेंगे।
बाणी से पहचानिये, साम चोर की घात।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥
सज्जन और दुष्ट को उसकी बातों से पहचाना जाता है क्योंकि उसके अन्तर्मन का उसकी बातों द्वारा पता चल जाता है । व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार उसका व्यवहार बनता है।
दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी कौन।
रहे को अचरज है, गये अचम्भा कौन ॥
यह शरीर दस दरवाजों का पिंजरा है इसमें आत्मा रूपी पंछी है । हमें इसमें रहने से आश्चर्य होता है । यदि यह इस शरीर से निकल जाये तो आश्चर्य क्यों ? अर्थात् मनुष्य की मृत्यु कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
दान दिए धन ना घटे, नदी ना घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥
kabir das ji कहते है। कि यह आँखों देखी बात है कि नदी का पानी पीने से कम नहीं होता इसी प्रकार दान देने से धन में कमी नहीं आती ।
मैं रोऊँ सब जगत को, मोको रोबै न कोय।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो सबके दुःख में दुःखी होता हूँ परन्तु मेरा दर्द कोई नहीं जानता । मेरा दर्द वही देख सकता है जो मेरी वाणी को समझता है।
हीरा तहाँ न खोलिए, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बाँधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥
अपने हीरे (शिक्षा) को लापरवाहों को देकर अपना समय क्यों व्यर्थ गंवाते हो । जब तुम कद्रदान नहीं पाते तो अपनी बहुमूल्य सीख गाँठ में बाँधों और अपना कार्य करो।
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥
जिस प्रकार बाजीगर अपने बन्दर से तरह-तरह के नाच दिखाकर उन्हें अपने साथ रखता है उसी प्रकार मन भी जीव के साथ है वह भी प्राणी को अपने इशारे पर नचाता है।
अवगन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे, दाम गाँठ से खात ॥
कबीर जी कहते हैं कि मैं शराब को बुरा मानता हूँ। व्यक्ति शराब पीकर अपने होश खो बैठता है। वह मूर्ख और जानवर बन जाता है तथा उसके पास धन का अभाव हो जाता है अर्थात् शराब सब बुराइयों की जड़ है इससे दूर रहने में ही भलाई है।
सोता साधु जगाइये, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥
यदि साधु सोता है तो उसे जगा देना चाहिए ताकि भजन करे लेकिन अधर्मी, शेर और साँप को नहीं जगाना चाहिए क्योंकि ये तीनों जागते ही लोगो को कष्ट पहुँचाते हैं।
वैद्य मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि रोगी मर गया और जिस वैद्य से उसकी चिकत्सा हो रही थी वह भी मर गया यहाँ तक कि यह सम्पूर्ण संसार भी नश्वर है परन्तु जिसे राम नाम का आसरा था वह अमर है अर्थात् राम नाम सत्य है बाकि सब मिथ्या है।
पतिव्रता मैली भली, काली कुचल कुरूप ।
पतिव्रता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि पतिव्रता स्त्री चाहे मैली कुचैली और कुस्पा ही क्यों न हो लेकिन उसके पतिव्रता गुण पर सारी सुन्दरताएँ न्यौछावर हो जाती है ।
कबीर जपना काठ की, क्या दिखलावे मोय ।
हृदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥
kabir das ji कहते हैं कि लकड़ी की माला जपने से क्या लाभ है जब तक उसमें मन संलग्न नहीं है। अत: मन से हरि का स्मरण कर, बिना मन लगे जाप व्यर्थ है।
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पट्ठन को फूट ॥
जिस प्रकार शरीर में तीर की भाल अटक जाती है और वह चुम्बक के बिना नहीं निकल सकती है। इस प्रकार तुम्हारे मन में जो बुराई है वह सच्चे गुरु के अभाव में नहीं निकल सकती अर्थात् पथ-प्रदर्शन के लिये सच्चा गुरु आवश्यक है।
जाके जिव्या बन्धन नहीं, हृदय में नहीं सांच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥
जिसकी जीभ अपने वश में नहीं और मन में सच्चाई नहीं ऐसे व्यक्ति के साथ रहकर तुझे कुछ प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसे मनुष्य का साथ छोड़ देना चाहिए।
राम रहे बन भीतरे, गुरु की पूजी ना आस ।
कहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥
बिना गुरु की सेवा किये और बिना गुरु की शिक्षा के जिन झुठे लोगों ने यह जान लिया कि राम वन में रहता है, वह पाखण्ड है । झूठे सदा परमात्मा को खोजने में असमर्थ रहते हैं।
हद चले सो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, तांको मता अगाध ॥
जो मनुष्य सीमा तक कार्य करता है वह मनुष्य है जो सीमा से बाहर कार्य की परिस्थिति में ज्ञान बढ़ाते हैं वह साधु है और जो सीमा से अधिक कार्य करता है, विभिन्न विषयों में जिज्ञासावश साधना करता रहता है उसका ज्ञान अथाह है।
हंसा मोती बिबन्या, कञ्चन थार भराय ।
जो मन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥
सोने के थाल में मोती भरे हुये बिक रहे हैं लेकिन जो उनकी कद्र नहीं जानते वह क्या करें उन्हें तो हंस रूपी जौहरी ही बीन सकता है।
समझाये समझे नहीं, पर के हाथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाय ॥
कबीर जी कहते हैं कि मैं (ईश्वर) तुझे अपनी ओर खींचता है परन्तु तू तो दूसरो के हाथों बिका जा रहा है और यमपुर की ओर जा रहा है। मेरे बहुत समझाने पर भी नहीं समझता ।
सुमरण से मन लाइये, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥
कबीरदास जी कहते हैं जैसे मछली बिना पानी के जीवित नहीं रह सकती ऐसे ही ईश्वर स्मरण के बिना मनुष्य मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः सबको हर समय ईश्वर स्मरण में लगे रहना चाहिए ।
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥
कबीरदास का विचार है कि तीर्थ करने से एक फल की प्राप्ति होती है और संत की संगत से चार फल की, परन्तु सच्चा गुरु मिलने से अनेक फलों की प्राप्ति होती है । इसलिए हमें सच्चे गुरु की तलाश करनी चाहिए।
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय।
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि मेरी बात कोई नहीं मानता बल्कि जिसको भी भली (कल्याणकारी) बात कहता हूँ वही मेरा शत्रु हो जाता है क्योंकि कलियुग ने अपने प्रभाव से सारे जग को अन्धा बना रखा है।
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल
बिना करम का मानव, फिरै डांवाडोल ॥
ज्ञान जैसी अमूल्य वस्तु तो विद्यमान है परन्तु उसको प्राप्त करने वाला कोई नहीं है । क्योंकि ज्ञान बिना कर्म किये नहीं मिलता इसी कारण प्राणी इधर-उधर भटकता रहता है। अतः भक्ति और सेवा करने पर ही ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है।
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान सुपारी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥
मनुष्य साफ-सुथरे, कपड़े पहनता है और पान सुपारी खाकर अपने तन को सुगन्धित भी रखता है परन्तु हरि का नाम न लेने पर यमदूत द्वारा बंधा हुआ नरक को जाएगा अर्थात् मनुष्य को स्वयं ईश्वर स्मरण से वंचित नहीं रखना चाहिए।
कहना था सो कह चले, अब कुछ कहा ना जाय।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥
जिस प्रकार नदी की लहरें फिर नदी में मिल जाती है उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता
ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी मरणोपरान्त परमात्मा में लीन हो जाता है यही सत्य है और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहे, थोथा देह उड़ाय ॥
साधु को छाज जैसे स्वभाव का होना चाहिए । छाज का गुण है कि वह सत वाले दाने को रख लेता है और थोथा उड़ा देता है । वैसे ही मनुष्यों को भी ईश्वर का भजन और परोपकार करना चाहिए । व्यर्थ के माया-मोह को छोड़ देना चाहिए।
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सुरत डोर लागी रहै, तार टूट नहिं जाय ॥
मनुष्य को सोते हुए भी ईश्वर से लौ लगाये रखनी चाहिए । कहीं ऐसा न हो कि ईश्वर भजन का तार टूट जाये । अर्थात् जीव को जागते-सोते प्रतिपल ईश्वर का नाम स्मरण करना चाहिए।
काम, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
कामी, क्रोधी और लालची इनसे ईश्वर भक्ति नहीं हो सकती । भक्ति तो कोई शुरवीर ही कर सकता है जिसे जाति, वर्ण और कुल का मोह न हो।
घट का परदा खोलकर, सन्तुख दे दीदार ।
बाल सनेही साइयाँ, आवा अन्त का यार ॥
बचपन का मित्र और आरम्भ से अन्त तक का मित्र जो सदैव तुझमें विराजमान है उसे जरा अन्दर के परदे को दूर करके तो देख तो तुझे अपने समक्ष ईश्वर के दर्शन होंगे।
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाये ।
कह कबार कछ भेद नहि, कहा रक कहा राय ।।
kabir das ji कहते हैं कि भक्ति तो पोलो की गेंद के समान है चाहे जो ले जाय । चाहे राजा या कंगाल भक्ति में किसी से कोई भेद नहीं समझा जाता चाहे कोई भी ले जाये. अर्थात् यह तो कर्म पर निर्भर है जो करेगा वही पायेगा ।
लगी लग्न छूटे नहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥
जिस वस्तु को पाने की किसी को लगन होती है वह उसे नहीं छोड़ता । चाहे उसे पाने में कितनी मुसीबत उठाने. पड़े। जैसे अंगारे में क्या मीठा होता है जिसको चकोर चबाता है ? अर्थात् चकोर की जीभ, चोंच भले ही जल जाये तो भी वह अंगारे को नहीं छोड़ता वैसे ही भक्त को जब ईश्वर की भजन नहीं छोड़ता।
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥
जो प्रेम का प्याला पीना चाहता है तो वह दक्षिणा में सिर भी देना जानता है । लोभी सिर नहीं दे सकता उसमें इतना साहस नहीं, प्रेमी के लिये मर नहीं सकता वैसे प्रेम का नाम लेता है ।
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा प्रजा जेहि रुचे, शीश देई ले जाय ॥
प्रेम न बागों में उपजता है, न बाजार में बिकेता है । राजा या प्रजा जिसे अच्छा लगे वह सिर देकर अर्थात् स्वयं को न्यौछावर करके इसे पा सकता है । कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।
मैं अपराधी जन्म का, नख सिख भरा विकार ।
तुम दाता दुःख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥
मैं जन्म से अपराधी हूँ मुझमें नख से सिर तक दोष भरा हुआ है । तुम दाता (भगवान) हो, कष्टों को हरने वाले हो, तुम ही मुझे सम्भालो, मेरा कल्याण करो।
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ों हाथ तो, कौन उतारे पार ॥
हे अन्तर्यामी ! आप ही आत्मा का आसरा हो यदि तुम्ही हाथ छोड़ दोगे तो कौन हमें संसाररूपी भवसागर से पार करायेगा।
जो तिल माही तेल हैं, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा साईं तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥
जिस प्रकार तिलों और चकमक पत्थर में आग छुपी रहती है उसी प्रकार परमात्मा भी तेरे अन्दर विद्यमान है। अतः अपनी चेतना को जगा स्वयं को पहचान और ईश्वर के दर्शन कर।
छीर रूप सत नाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥
परमात्मा का सच्चा नाम दूध रूप है । संसार का व्यवहार जल रूप है। इनमें से तत्व को निकालने वाला साधु हंस रूप है, जो दुध पी जाता है और जल छोड़ देता है अर्थात् अच्छाइयों को ग्रहण कर लेता है, बुराइयों को छोड़ देता है।
सुमरत सुरत जगाय कर, मुख से कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥
हे मनुष्य! तू एकाग्रचित होकर ईश्वर का स्मरण कर और मुख से कुछ न बोल । तू लोक दिखावा त्यागकर अपने सच्चे दिल से ईश्वर का भजन कर ।
सुमिरन सो मन लाइये, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥
कबीर दास जी कहते हैं कि ईश्वर स्मरण में इस प्रकार मन को लगाओ जैसे हिरन संगीत सुनने में इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे शिकारी के आने का भी पता नहीं रहता यहाँ तक कि प्राण भी उसी संगीत में दे देता है । अत: तू ईश्वर मे अटूट श्रद्धा रख।
नही शीतल है चन्द्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥
kabir das ji कहते हैं कि न तो शीतलता चन्द्रमा में है न ही शीतलता बर्फ में है, वो ही सज्जन शीतल है जो परमात्मा के स्नेही हैं अर्थात् मन की शान्ति हरि-नाम में
जबहि नाम हिरदे धरा, भया पाप का नाश ।
मानों चिंगारी आग की, परी पुरानी घास ॥
कबीर जी कहते हैं कि ईश्वर का नाम स्मरण करते ही पापों का नाश हो जाता है जैसे आग की चिंगारी पुरानी घास पर गिरते ही घास को जला देती है, इसी प्रकार का नाम लेते ही सारे पाप तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।
जा कारण जग दूँढ़िया, सो तो घट की माहिं ।
परदा दिया भरम का, ताते सुझे नाहिं ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव ! जिस ईश्वर को तू सारे संसार में ढूँढ़ता फिरता है वह तेरे अन्दर ही उपस्थित है। तेरे अन्दर भ्रम का परदा पड़ा हुआ है, इसी कारणवश तुझे हरिदर्शन नहीं होते ।
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्यों कर सीवे दर्जी ॥
कोई भी मेरे हृदय के मर्म को जानने वाला न मिला जो भी मिले सब स्वार्थी मिले । अत: मेरा मनरूपी आकाश फट गया जिसे कोई दर्जी भी नहीं सी सकता। वह तो तब ही ठीक होगा जब कोई हृदय-स्पर्शी मिले ।
जल ज्यों प्यास माछरी, लोभी प्यासा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥
kabir das ji अपनी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि जैसे मछली को पानी प्रिय लगता है, लोभी को धन और माता को अपना बालक प्रिय लगता है वैसे ही भक्त को ईश्वर प्रिय लगता है।
जब लग नाता जगत का, तब लग भगति न होय ।
नाता जोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥
जब तक मन सांसारिक वस्तुओं में आसक्त है तब तक भक्ति नहीं हो सकती । जो इस आसक्ति को त्याग दे और हरिभजन करे वही भक्त कहलाते हैं ।
आहार करे मनभावना, इन्द्री किए स्वाद ।
नाक तिलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥
जो मनुष्य इन्द्रियों के स्वाद के लिये नाक तक भरकर खाये तो वह प्रसाद कहाँ रहा ? अर्थात् भोजन शरीर की रक्षा के लिये सोच विचर कर करें तभी उचित है । सांसारिक भोग ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करें ।
फूटी आँख बिवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस बीस है, ताको नाम महन्त ॥
जिनकी ज्ञानरूपी आंखें फूटी हुई है वह सज्जन दुर्जन में भेद कैसे करे ? उनकी स्थिति यह है कि जिसके साथ दस बीस चेले देखे उसीको महात्मा समझ लिया ।
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥
जब तक भक्ति इच्छापूर्ति के लिये है तब तक ईश्वर सेवा व्यर्थ है अर्थात् भक्ति निःस्वार्थ भाव से करनी चाहिए । जब ही परमात्मा को पाया जा सकता है ।
छिन हीं चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥
जो प्रेम पल में उतरे और पल में चढ़े वह प्रेम नहीं है। जो प्रेम कभी कम नहीं होता, हरदम शरीर की हड्डियों तक में समाया रहता है वही वास्तविक प्रेम है ।
दया कौन पर कीजिये, का पर नर्दय होय ।
साईं के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय ॥
किस पर दया करनी चाहिये किस पर निर्दयता करनी चाहिये? हे मनुष्य ! तू समस्त प्राणियों पर दया भाव रख । चींटी हो या कुंजर (हाथी) सब पर समभाव रख। सभी परमात्मा के जीव हैं ।
दया भाव हृदय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी सबद ॥
जिनके हृदय में दया तो लेशमात्र नहीं और वह ज्ञान की बातें खूब करते हैं, वे आदमी चाहे जितनी साखी क्यों न सुने उन्हें नरक ही मिलेगा।
सबसे लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जैसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥
सबसे छोटा बनकर रहने में सब काम आसानी से बन जाते हैं जैसे दूज के चाँद को सब सिर झुकाते हैं।
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घर घर जाय ॥
धैर्य रखने के कारण ही हाथी मन भर खाता है परन्तु धैर्य न रखने के कारण कुत्ता एक-एक टुकड़े के लिये | घर-घर मारा फिरता है।
ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरि पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥
पानी ऊँचे पर नहीं ठहरता वह नीचे ही फैलता है। जो नीचा झुकता है वह भरपेट पानी पी सकता है जो ऊँचा ही खड़ा रहे वह प्यासा रह जाता है।
जहाँ काम तहाँ नहिं, जहाँ नाम नहि वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥
जिसके मन में कामना है वहाँ ईश्वर नहीं, जहाँ हरिनाम है वहाँ कामनाएँ मिट जाती हैं। जिस प्रकार सूर्य और रात्रि नहीं मिल सकते इसी प्रकार जिस मन में ईश्वर का स्मरण है वहाँ कामनाएँ नहीं रह सकती।
मार्ग चलते जो गिरे, ताको नाहिं दोष ।
यह कबीरा बैठा रहे, जो सिर करड़े कोष ॥
मार्ग में चलते-चलते जो गिर पड़े उसका कुछ दोष नहीं, परन्तु जो बैठा ही रहेगा उसके सिर पर कठिन कोस बने ही रहेंगे । अर्थात् कार्य करने में बिगड़ जाये तो उसे सुधारने का प्रयास करें, परन्तु कार्य को न करना अधिक दोषपूर्ण है।
सत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास की, कबहूँ न आवे चूक ॥
जो आदमी सच्चाई को बाँटता है अर्थात् सच्चाई का प्रचार करता है और रोटी बाँटकर खाता है। कबीरदास जी कहते हैं कि उस भक्त से कभी भूल चूक नहीं होती।
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहें कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥
जो मनुष्य अपने मन में फल की इच्छा रखकर सेवा करता है वह सेवक नहीं, वह तो सेवा के बदले कीमत चाहता है, सेवा तो नि:स्वार्थ भाव से होनी चाहिए।
बाहर क्या दिखलाए, अन्तर जपिये राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥
हे जीव तुझे लोक दिखावे से क्या काम और न ही धनी से तुझे कुछ काम होना चाहिए । तुझे सिर्फ अपने भगवान से काम है इसलिए मन से प्रभू का नाम स्मरण किये जा ।
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥
शील स्वभाव सुख का सागर है जिसकी थाह कोई नहीं पा सकता है। जिस प्रकार धन के अभाव के कारण कोई शाह (बादशाह) नहीं कहलाता उसी प्रकार हरिभजन के बिना कोई साधु भी नहीं हो सकता।
काया काठी काक्ष घुन, जतन-जतन सों खाय ।
काया वैद्य ईश बस, मर्म न काह पाय ॥
शरीर रूपी काठ को काल रूपी घुन निरन्तर खाये जा रहा है परन्तु इस शरीर में ईश्वर का वास है यह रहस्य कोई बिरला ही जानता है।
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुडै सो बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥
सोना (स्वर्ण) सज्जन और साधु तीनों अच्छे हैं क्योंकि यह सैकड़ों बार टूटते हैं और जुड़ते हैं । लेकिन जो कुम्हार के घड़े की भाँति एक बार टूटकर नहीं जुड़ते अर्थात् जो बुरे हैं वह विपत्ति के समय धैर्य खो बैठते हैं।
आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥
जब कोई दूसरा गाली देता है तो एक होती है परन्त उसके बदले गाली देने पर वह बहुत हो जाती है । कबीरदास जी कहते हैं कि गाली के बदले में यदि उलट कर गाली न दोगे तो गाली एक की एक ही रहेगी।
कबीरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविन्द गुन गा ॥
कबीरजी कहते हैं कि हे मनुष्य ! तेरा यह तन जा रहा है, हो सके तो इसे ठिकाने लगा ले अर्थात् सारा जीवन व्यर्थ जा रहा है । इसे सन्त सेवा और गोविन्द का भजन करके अच्छा बना ले।
कथा कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में, नाहिं और उपाव ॥
kabir das ji कहते हैं कि संसार रूपी भवसागर से पार उतरने के लिए कथा-कीर्तन रूपी नाव चाहिए इसके अतिरिक्त पार उतरने का और कोई उपाय नहीं है ।
तेरा साई तझ में. ज्यों पहपन में बास ।
कस्तुरी का हिरण ज्यों, फिर-फिर ढूँढत घास ॥
हे मनुष्य ! तेरा ईश्वर तेरे अन्दर व्याप्त है जैसे पुष्पों में सुगन्धित व्याप्त होती है । परन्तु जिस प्रकार कस्तुरी वाला हिरण अपने अन्दर छिपी हुई कस्तुरी को अज्ञानवंश घास में ढूँढ़ता है उसी प्रकार तू भी परमात्मा को इधर-उधर खोजता फिरता है।
कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जाने दे, जो नहिं गहता होय ॥
कबीर जी कहते हैं कि कहने वाले तो बहुत मिलते हैं। परन्तु वास्तविक बात को समझाने वाला कोई नहीं मिलता यदि वास्तविक ज्ञान बताने वाला कोई नहीं तो उसके कहे अनुसार चलना व्यर्थ है।
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छांय ॥
जिस स्थान पर ग्राहक है वहाँ मैं नहीं हूँ और जहाँ मैं हँ वहाँ ग्राहक नहीं है अर्थात् मेरी बात को मानने वाले नहीं हैं लोग बिना ज्ञान के इधर-उधर भटकते फिरते हैं ।
आस पराई राखत, खाया घर का खेत ।
औरन को पत बोधता, मुख में पड़ा रेत ॥
हे मनुष्य ! तू दूसरों के घर की रखवाली करता है और अपने घर को नहीं देखता अर्थात् तू दूसरों को ज्ञान सिखाता है और स्वयं क्यों नहीं परमात्मा का भजन करता।
तब लग तारा जगमगे, तब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मबश, ज्यों लग ज्ञान ना पूर ।।
जब तक सूर्य उदय नहीं होता तब तक तारा चमकता रहता है । ठीक इसी प्रकार जब तक जीव को पूर्ण ज्ञानं नहीं हो जाता तब तक वह कर्म के अधीन रहता है ।
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥
जिस प्रकार समुद्र में आग लग जाने पर उसमें धुआँ प्रकट नहीं होता उसी प्रकार जब मन में प्रेम की अग्नि प्रज्वलित होती है तो दूसरा उसे नहीं जान पाता या तो वह जानता है जिसके हृदय में अग्नि लगी है या आग लगाने वाला जानता है।
बलिसारी वा दूध की, जामें निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि मैं दूध का सम्मान करता हूँ जिसमें घी निकलता है जिस प्रकार दूध में घी है उसी प्रकार मेरी साखी चारों वेदों का निचोड़ है।
सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब वनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरुगुन लिखा न जाय ॥
कबीर जी गुरु की महत्ता को दर्शाते हुये कहते हैं कि मैं चाहे सारी पृथ्वी को कागज बनाऊँ, सारे जंगलों के वृक्षों की कलम बनाऊँ और सातो समुद्र की स्याही बनाऊँ तो भी गुरु के यश का गुणगान नहीं लिख सकता।
साधु गांठि न बांधई, उदर समाता लेय ।
आगे पीछे हरि खड़े, जब मांगे तब देय ॥
साधु कभी गांठ नहीं बाँधता अर्थात् जोड़कर नहीं रखता। वह तो पेट भर अन्न लेता है क्योंकि उसे इस बात का ज्ञान है कि ईश्वर उसके आसपास ही उपस्थित है अर्थात् परमात्मा सर्वव्यापी है । प्राणी जब माँगता है तब । वह उसे दे देता है।
सब आए इस एक में, डाल पात फल फूल ।
कबीरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल॥
कबीर जी कहते हैं कि जड़ के द्वारा ही डाल, पत्ते और फल-फूल लगते हैं । अतः जब जड़ ही पकड़ ली जाये तो सब चीजें हाथ आ जाती हैं अर्थात् ईश्वर पर विश्वास करो जो सबका पालनहार है।
सुमरण की सुबयों करो, ज्यो गागर पनिहार ।
होले डोले सुरत में, कहै कबीर विचार ॥
जैसे पनिहारी का ध्यान हर समय गागर पर ही रहता है इसी प्रकार तुम भी हर समय उठते-बैठते ईश्वर में मन लगाओ इसी में तुम्हारा उद्धार है।
ऊँचे कल में जामियाँ, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा भरी, साधु निन्दा सोय ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि शराब सोने के कलश में ही क्यों न हो फिर भी लोग उसे बुरा ही कहेंगे । इसी प्रकार कोई ऊँचे कुल में जन्म लेकर बुरे कर्म करे तो वह भी बुरा होता है।
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा की जो ।
बाप पूत उरभाय के, संग ना काहो के हो ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि यह माया ब्रह्मा भंगी की जोरू है, इसने ब्रह्मा और जीव दोनों बाप-बेटों को उलझा रखा है मगर यह दोनों में से एक को भी नहीं देगी। इस लिये तुम इसके जाल में मत फसों । अर्थात् मोह माया में मत फंसो ।
जो जन भीगे राम रस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरस ते, ना दुःख ना सुख ॥
जो मनुष्य राम रस से भीगा रहता है विपत्तियाँ कभी उस की ओर अपना रुख नहीं करतीं। जिसके मन में राम नाम के सिवा दूसरा भाव नहीं है उनको सुख-दुःख का बन्धन नहीं होता।
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाये ना लगे, फिर क्या लेत हमार ॥
कबीरदास जी कहते हैं मैंने चन्दन की डाली पर बैठकर बहुत से लोगों को पुकारकर उनका उचित मार्गदर्शन किया परन्तु जो इस मार्ग पर नहीं आता वह ना आवे । वह हमारा क्या लेता है अर्थात् जो वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त नहीं करना चाहता वह अपना ही नुकसान करता है ।
जो जाने जीवन आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौंना, मिले ना दूजी बार ॥
यदि तुम समझते हो कि यह जीवन हमारा है तो उसे राम नाम से भर दो क्यों कि यह जीवन एक ऐसा अतिथि है जो दोबारा प्राप्त होना कठिन है।
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैंदा लुटे कसाय ॥
जैसे कसाई भेंड़े को मारता है इसी प्रकार जीव को मारने के लिये यम घात लगाये रहता है और समक्ष में नहीं आता कि लोग किसके भरोसे लापरवाह बैठे रहते हैं । क्यों नहीं वे गुरु से शिक्षा लेते जिससे संसार रूपी भवसागर से पार हो सकें।
अपने अपने साख की, सब ही लीनी मान ।
हरि की बात दुरनतरा, पुरी ना कहूँ जान ॥
हरि के रहस्य को कोई नहीं समझ सका । उसके रहस्य को समझना कठिन है । बस जिसने यह जान लिया कि मैं सब कुछ जान गया हूँ, इसी अहंकार के वशीभूत होकर वास्तविकता से प्रत्येक व्यक्ति बंचित ही रह जाता है।
साईं आगे सांच है, साईं सांच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे केस मुण्डाय ॥
ईश्वर को सत्य पसन्द है, चाहे तुम जटा बढ़ाकर सत्य बोलो अथवा सिर मुंडाकर अर्थात् सत्य का अस्तित्व कभी परिवर्तित नहीं होता । सांसारिक वेशभूषा बदलने से सत्य नहीं बदला जा सकता।
जो तू चाहे मुक्त हो, छोड़ दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥
प्रभु का कथन है कि यदि तू मुक्ति चाहता है तो मेरे अतिरिक्त सब आस छोड़ दे और मेरे जैसा बन जा, फिर तुझे कुछ परवाह नहीं रहेगी । तुझे अपने पास सब कुछ होने का अभास होगा।
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ा निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥
तू भूखा-भूखा कहकर क्या सुनाता है ? लोग क्यों तेरी उदरपूर्ति कर देंगे । ध्यान रख जिस ईश्वर ने तुझे शरीर और मुँह दिया है वही तेरे कार्य पूर्ण करेगा।
खेत ना छोड़े सूरमा, जुझे दो दल माह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नांह ॥
जो वीर है वह दो सेनाओं के बीच में लड़ता है उसे अपनी मृत्यु की चिन्ता नहीं । वह मैदान छोड़कर नहीं भागता।
साईं ते सब होत है, बन्दे से कुछ नांह ।
राई से पर्वत करे, परवत राई नांह ॥
ईश्वर सर्वशक्तिमान है वह चाहे कर सकता है, बन्दा कुछ नहीं कर सकता । वह राई को पहाड़ और पहाड़ को राई कर दे अर्थात् छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा कर सकता है।
कांचे भांडे से रहे, ज्यों कुम्हार का नेह ।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥
जैसे कुम्हार तुम्हारा बहुत ध्यान व प्रेम से कच्चे बर्तन को बाहर से थपथपाता है और अन्दर से सहारा देता है। इसी प्रकार गुरु को शिष्य का ध्यान रखना चाहिए।
प्रेम भाव एक चाहिये, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे वन को जाय ॥
मनुष्य चाहे अनेक भेष बनाये, घर में रहे अथवा वन में रहे परन्तु केवल प्रेमभाव होना चाहिए । अर्थात् संसार में किसी भी स्थान पर, किसी भी परिस्थित में रहे हृदय प्रेमभाव से ओत-प्रोत होना चाहिये।
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुकदेव ॥
यदि किसी ने अपना गुरु नहीं बनाया किन्तु जन्म से ही हरि सेवा में लगा हुआ है तो शुकदेव की तरह बैकुण्ठ से आना पड़ेगा।
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥
हरि का स्मरण कर लेने से जीवात्मा की शान्ति हो गई और मोहमाया की अग्नि शान्त हो गई । रात-दिन सुखपूर्वक व्यतित होने लगे और हृदय में ईश्वर रूप प्रकट होने लगा।
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की तन की अनथक साध ॥
साधु, सती और वीर की बातें न्यारी हैं, ये अपने जीवन की परवाह नहीं करते हैं । इसलिए इसमें साधना भी अधिक है । प्रत्येक मनुष्य इन तीनों की समानत, नहीं कर सकता।
केतन दिन ऐसे भये, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥
बिना प्रेम की भक्ति के वर्षों व्यतीत हो गये अतः ऐसी भक्ति से क्या लाभ ? जैसे बंजर धरती में बोने से फसल नहीं होती चाहे कितनी ही वर्षा हो । ऐसे ही बिना प्रेम की भक्ति फलदायक नहीं होती।
भगति भजन हरि नावँ है, दूजा दुक्ख अपार ।
मनसा बाचा क्रमनाँ, कबीर सुमिरण सार ॥
कबीर का कथन है कि ईश्वर की भक्ति, भजन उसका नाम ही महत्त्वपूर्ण है, शेष जितनी बातें हैं वे असीम दुःखदायी हैं । अतः मन, वचन और कर्म से ईश्वर स्मरण करना चाहिए । ईश्वर का स्मरण ही सारतत्त्व है।
कबीर चित्त चमंकिया, चहुँ दिसि लागी लाई ।
हरि सुमिरण हाथू घड़ा, बेगे लेहु बुझाई ॥
कबीर जी कहते हैं कि इस संसार में सब जगह विषय-वासनाओं की आग लगी हुई दिखाई देती है । मेरा मन भी उसी आग से जल रहा है। हे जीव ! तेरे हाथ में ईश्वर स्मरण रूपी जल का घड़ा है, तू इस जल से शीघ्र ही इस अग्नि को शान्त कर ले।
अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारी ।
जीभडिया छाला पडया. राम पकारी-पुकारी ॥
कबीर कहते हैं कि ईश्वर रूपी प्रिय का रास्ता देखते-देखते मेरी आंखों में अंधेरा छाने लगा है और उसका नाम पुकारते-पुकारते मेरी जीभ में छाले पड़ गये हैं अर्थात् मैं निरन्तर उनके नाम को पुकार रहा हूँ परन्तु उन्होंने अभी तक मेरे ऊपर कृपा नहीं की।
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै ॥
संसारी जीवों को वियोग का अनुभव नहीं है । वे बिना चिन्ता के आनन्दपूर्वक खाते हैं और सोते हैं केवल मुझे ही ईश्वर के वियोग का दुःख है। मैं अपने प्रियतम परमात्मा के वियोग में सारी-सारी रात जागकर रोती रहती हूँ।
कबीर कहा गरबियौ, ऊँचे देखि आवास ।
काल्हि परयूँ भ्वै लोटणां, ऊपरि जामै घास ॥
हे जीव! तू ऊँचे-ऊँचे आवासों को देखकर घमण्ड क्यो कर रहा है ? ये भौतिक वस्तुएँ नश्वर हैं। कुछ ही दिनों में ये जमीन पर गिर जायेंगी और उसके ऊपर घास उग आयेगी।
यह ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल ।
दिन दस के व्यौहार कौं, झूठे रंग न भूलि ॥
यह संसार सेंमर के फूल के समान क्षण-भंगुर है । सेंमर का फूल आर्कषक लगता है। किन्तु उसका आर्कषण क्षणिक है, कुछ ही दिनों में टूटकर गिर जाता है । ठीक ऐसी स्थिति संसार की है । अतः हे प्राणी ! तू संसार के थोड़े से दिनों के चमत्कार और व्यवहार में पड़कर वास्तविकता को मत भूल ।
इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूँ पाली देह ।
सम नाम जाण्या नहीं, अंति पड़ी मुख ह ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी ! समय आने पर भी तू चैतन्य नहीं हुआ और अवसर चूक गया । तू पशु के समान अपने शरीर के पालन-पोषण में लगा रहा । तूने ईश्वर के नाम के महत्त्व को नहीं जाना । इसलिये अन्त में तेरे मुँह में धूल ही पड़ेगी।
यह तन काचा कुम्भ है, लियाँ फिरै था साथिं ।
ढबका लागा फूटि गया, कछु न आया हाथि ॥
जिस प्रकार कच्चा घड़ा तनिक से धक्के से टूट जाता है और उसमें भरा पदार्थ बिखर जाता है । उसी प्रकार यह शरीर भी मृत्यु के तनिक से धक्के से नष्ट हो जायेगा, फिर तुझे कुछ प्राप्त नहीं होगा।
कबीर कहा गरबियौ, देहीं देखि सुरंग।
बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग ॥
हे प्राणी ! तू अपने शरीर की सुन्दरता पर घमण्ड क्यों करता है । यह शरीर एक दिन तुझसे छूट जायेगा । फिर यह तुझे उसी प्रकार प्राप्त नहीं होगा जिस प्रकार साँप की केचुली उसके शरीर से अलग होने पर फिर उसके शरीर पर नहीं चढ़ती है।
जिहि घर साधु न पूजिये हरि की सेवा नाँहि ।
ते घर मड़घट सारखे, भूत बसै तिन माँही ॥
कबीर का कथन है कि जिन घरों में सज्जन पुरुष का सम्मान नहीं होता और जो हरि का स्मरण नहीं करते वह घर वास्तव में शमशान के समान है और वहाँ भूतों का वास रहता है । अर्थात् सच्चा गृहस्थ एक ओर अतिथियों का सम्मान करता है और दूसरी ओर ईश्वर उपासना में भी मन लगाता है।
मैंमता मन मारिरे, नान्हाँ करि-करि पीसि ।
तब सुख पावै सुन्दरी, ब्रह्मा झलक्कै सीसि ॥
हे मनुष्य ! अहंकार से भरे हुये इस मन को वश में कर । इसे वश में करके और महीन पीस-पीसकर सक्ष्म दष्टिवाला बना ले । ऐसा करने पर ही तेरी जीवात्मा रूपी सन्दरी सुख प्राप्त कर सकती है और तभी मस्तक में ब्रह्मा ज्योति प्रज्वलित होगी।
कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाई ।
दुरमति दूरि गँवाइसी, देसी सुमति बताई ॥
कबीरजी कहते हैं कि हमें सज्जनों की संगति अतिशीघ्र करनी चाहिये। अच्छी संगति संगति से हमारी दुर्बुद्धि दूर हो सकती है और हमें सद्बुद्धि प्राप्त हो सकती है।
तो दोस्तों आपको यह Kabir Das Ke Dohe – कबीरदास के दोहा और उनके अर्थ का यह आर्टिकल कैसा लगा, कमेंट करके जरूर बताये। अगर आप किसी अन्य के बारे में पढ़ना चाहते है जो इसमें नहीं तो वो भी बताये। हम उसे जल्द से जल्द अपलोड कर देंगे।
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