Moral stories in Hindi के इस आर्टिकल में आप सभी का बहुत – बहुत स्वागत है। इस आर्टिकल में आपको छोटे बच्चो के लिए शिक्षाप्रद नैतिक कहानियाँ (Moral stories in Hindi) संग्रह मिलेगा।
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महान आदर्श – Moral Story in Hindi (नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ)
बात बहुत पुरानी है। एक राज्य था, उस राज्य में एक किसान रहता था वह बहुत ही मेहनती ईमानदार और अपने आदर्शों का पक्का था। उसके मन में तनिक भी लोग वह छल कपट नहीं था। वह अपनी मेहनत की कमाई में विश्वास रखता था।
1 दिन की बात है वह किसान अपने खेतों में हल चला रहा था एकाएक उसके हल की नोक किसी कठोर चीज से टकराई।
उसने झुक कर मिट्टी हटाई, तो उसे जमीन में गड़ा एक कलस-सा दिखाई पड़ा। किसान ने वह कलस बाहर निकाल लिया। कलश को खोलने पर उसे उसमें सोने की गिन्नीया दिखाई दी। उस गरीब किसान के लिए वह धन किसी खजाने से कम नहीं था। किंतु उस ईमानदार किसान ने उस कलस का मुंह बंद कर दिया।
उसने उस धन को छुआ तक नहीं और उसे लेकर सीधा राजा के दरबार में जा पहुंचा। राजा के सामने पहुंचे किसान ने सारी बात साफ-साफ राजा को बता दी। और सोने की गिन्नीया से भरा वह कलस भी राजा को सौंप दिया।
उसकी इमानदारी देख कर आजा चौक गया। मन ही मन राजा बहुत प्रसन्न हुआ कि ऐसे महान लोग भी उसके राज्य में है। राजा ने उस किसान से पूछा क्या तुम जानते हो कि इसकी कीमत कितनी होगी? जी हां महाराज इस सोने की गिन्नीयों की कीमत अवश्य ही हजारों रुपए होगी, किसान ने कहा।
इस पर राजा ने प्रश्न किया जब तुम इनकी कीमत जानते थे तो तुमने इन्हें अपने पास ही क्यों नहीं रख लिया? किसान ने तुरंत जवाब दिया महाराज मेरे आदर्श की कीमत इन सोने के गिन्नीयों से कहीं अधिक है। मेरे आदर्श दुनिया की किसी भी वस्तु से मूल्यवान है।
उन्हें में किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं सकता। राजा यह सुनकर बेहद प्रभावित हुआ।
उसके बाद राजा ने उस किसान को 100 गिन्नियां लेने के लिए विनर्म पूर्वक बोला। मगर किसान ने गिन्नीया लेने से इंकार करते हुए कहा, राजन जो इनाम प्यार से के शब्द धन्यवाद में हैं, वह लाखों रुपए से भी सर्वोपरि है। यह कह कर किसान चला गया। राजा प्रशंसा भरी नजरों से उसे देखता रहा।
Moral Story : अ:त बच्चों, हमें इस कहानी से या शिक्षा मिलती है कि हमें किसी भी कीमत पर अपने आदर्श नहीं बदलने चाहिए।
Panchtantra short stories in Hindi with Moral । पंचतंत्र की कहानी
शिकार का शौक – Moral Story in Hindi (नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ)
एक राजा को शिकार खेलने का बड़ा शौक था, उसके महल में कई जंगली पशु पक्षियों की खाले दीवारों पर टंगी थी।
1 दिन राजा से उसके पुत्र ने पूछा – पिताजी आप मासूम जानवरों का शिकार कर जंगल की सुंदरता को क्यों नष्ट करते हैं? राजा ने कहा बेटे जो लोग पशु पक्षियों का शिकार खेलते हैं, वह बड़े बहादुर होते हैं। और हां, पंछियों का शिकार खेलने से जंगल की सुंदरता नष्ट नहीं होती, बल्कि निर्बल पशु पक्षियों कि स्वतंत्रता मिलती है ताकि वे आसानी से जंगल की खुली वादियों में विचरण कर सकें। पुत्र अपने पिता के जवाब से संतुष्ट ना हुआ।
उसने सोचा पशु पक्षियों का शिकार करना अच्छी बात नहीं, यह आदत तो मैं छुड़ाकर रहूंगा। दूसरे दिन राजा शिकार खेलने के लिए रवाना हुआ तो पुत्र बोला पिताजी मैं भी चलूंगा शिकार पर आपके साथ।
राजा ने समझाया बेटा! जंगल का मामला है पग पग पर होशियारी रखनी पड़ती है। तनिक चूक मौत का कारण बन सकती है।
लेकिन पुत्र ने एक न सुनी वह जिद करने लगा। पुत्र को रोते देख रानी ने राजा से निवेदन किया, ले भी जाओ, इसे भी तो आपकी तरह बहादुर बनना है, या अभी से ही डरपोक रहा तो बड़ा होकर और भी दब्बू बन जाएगा।
राजा ने उसे भी घोड़े पर बैठा लिया दोनों जंगल में जा पहुंचे। तभी राजा ने एक भागते हुए प्यारे से हिरण के बारे में अपने पुत्र से कहा बेटा, जरा यह तो बताओ कि वह भागता हुआ हिरण बार-बार पीछे मुड़कर क्यों देख रहा है।
पुत्र तो इसी प्रतीक्षा में था कि उसने जवाब देने से पहले एक सवाल राजा से किया आप सच्चे क्षत्रिय हैं या नहीं। राजा ने कहा – हां हम क्षत्रिय तो है, लेकिन तुम्हारे इस सवाल के पूछने का क्या मतलब? पुत्र ने कहा हां, बस यह दौड़ता हुआ हिरण का बच्चा यही मुड़ कर देख रहा है कि आप छत्रिय हैं या नहीं? तभी राजा ने टोका, यह मुक पशु इस तरह हमारा क्षत्रिय धर्म कैसे जानेगा?
पुत्र ने जवाब दिया, यह जानता है कि सच्चा क्षत्रिय वही है जो भागते हुए किसी पशु या शत्रु पर भी प्रहार नहीं करता। अपने पुत्र की इस बात से राजा का हृदय उसी दिन से परिवर्तित हो गया और उसी दिन उसने शिकार ना खेलने की कसम ले ली। पुत्र अब बहुत खुश था क्योंकि वह अपने पिता का शिकार खेलने का शौक छुड़ा चुका था।
Moral Story : अतः हम लोगों को भी यह सोच रखनी चाहिए कि पशु पक्षियों पर दया करें।
गधे की आँख – नैतिक कहानियाँ – नैतिक शिक्षा पर छोटी कहानी
किसी गाँव में एक कुम्हार रहता था, उसके पास एक गधा था, वह गधा ही उसके परिवार की रोजी रोटी का साधन था। कुम्हार गाँव के दुकानदारों का माल शहर से गधे पर लादकर गांव ले आता था । इस प्रकार जो पैसे मिलते, उनसे वह अपने परिवार का गुजारा चला रहा था। परंतु समय एक जैसा नहीं रहता।
अचानक एक रात कोई चोर उसके गधे को चुरा कर ले गया । कुम्हार ने उसे ढूंढने की बहुत प्रयत्न किया परन्तु गधे का कहीं पता न चला । गधे के बिना उनका काम नहीं चल सकता था। अतः मजबूर होकर उसने दूसरा गधा खरीदने का विचार बनाया और एक सेठ से कुछ रुपये उधार लेकर नया गधा खरीदने के लिए पशुओं की मंडी की और चल पड़ा।
मंडी पहुंच कर उसने देखा कि उसका चोरी हुआ गधा लिए एक आदमी उसे बेचने के लिए एक स्थान पर खड़ा है । उसने गधे को पहचान कर उस आदमी से कहा- यह गधा तो मेरा है, तुम इसे चोरी करके ले आए हो । मुझे मेरा गधा वापस दे दो, नहीं तो मैं शोर मचा दंगा । कुम्हार की बात सुनकर उस आदमी ने कहा- यह
गधा मेरा है, तू झूठ बोलकर उसे अपना बनाना चाहता है मेरी चीज है, मैं तुझे कैसे दे दूँ। जो करना है कर लो उनका झगड़ा सुनकर काफी लोग वहाँ इकटठा हो गए। दोनों की बातें जानकर काफी लोगों ने पूछा-तुम्हारे पास अपना पक्ष सही सिद्ध करने के लिए कोई सबूत है? कुम्हार की बुद्धि काम कर गयी।
उसने तुरंत एक कपड़े से गधे की आँखों पर पट्टी बाँध दी और लोगों से कहा, मेरा गधा एक आँख से अंधा है। यदि यह इसका है तो इसे भी यह पता होगा कि उसे किस आँख से दिखाई नहीं देता। उस आदमी ने तुरंत कहा- हाँ, हाँ इसे दाई आँख से दिखाइए नहीं देता। उस आदमी फिर तुरंत बात बदल कर बोला, नहीं, नहीं वह बायीं आँख से अंधा है।
कुम्हार की चाल काम कर गयी । उसने गधे की आँखों से पट्टी खोलकर लोगों से कहा-आप भी देख लीजिए कि गधा अंधा है या उसकी दोनों आँखों से ठीक से देख सकती हैं। लोगों ने देखा, कि गधे की दोनों आँखें ठीक हैं । उन्होंने कुम्हार की बुद्धि और चतुराई की प्रशंसा की और उस आदमी से कहा- तुम झूठे हो, गधा तुम्हारा नहीं है।
गधा कुम्हार को दे दो। नहीं तो हम तुम्हें पुलिस के हवाले कर देंगे। चोर ने गधा कुम्हार के हवाले कर दिया और लोगों से अपने झूठ और चोरी के लिए क्षमा माँगी। कुम्हार अपना गधा लेकर खुशी-खुशी घर आ गया।
चतुर सियार – शिक्षाप्रद कहानियाँ
एक गांव के पास एक सियार और सियारिन रहती थी, वह अपने घर की तलाश में निकले इन्हें एक शेर की मांद मिली और उसमें वह रहने लगे। जब शेर वन से लौटा तब सियार और सियारिन ने देखा कि शेर आ रहा है तो सियार कप-कपाने लगा। तब सियारिन ने कहा कि तुम कहा करते थे कि अकल से काम लेने पर काम होता है।
सियार ने कहा कि सुन सियारनी! जब हमारे पास शेर आएगा, तब मैं तुमसे पूछंगा कि तेरे बच्चे क्यों रो रहे है। तब तू कहना कि बच्चे खाने के लिए शेर मांग रहे हैं।
सियारिन ने ऐसा ही किया, शेर ने सोचा उसके बच्चे तो शेर मांग रहे है तो इसके पिता कितने पहलवान होंगे। यह सुन शेर डर कर चला गया।
जब शेर फिर आया तो सियार बोला कि तेरे बच्चे तो रोज-रोज रोते है इतने शेर कहां से लाऊं।
शेर सियारिन की तरफ बढ़ा तो सियारिन बोली कि ये ले शेर, यह सुनकर शेर भाग गया।
शेर एक बन्दर के पास पहुंचा तो शेर बोला कि भाई ! हमारी मांद में एक सियार-सियारिन रहने आ गए हैं। उन्हें भगाना है, कोई उपाय बता । बंदर बोला कि तुम मुझे अपनी पूंछ से बाँध ले। शेर ने उसको अपनी पूंछ से बाँध लिया।
वह अपनी मांद की ओर बढ़ा तो सियार बोला कि बन्दर को मैंने दो शेर लाने को कहा था लेकिन वह एक शेर ही ला रहा है। शेर यह सुनकर वन की तरफ भागा तो बन्दर घिसटकर मर गया और शेर उसी वन में भाग गया और सियार-सियारिन उसी मांद में रहने लगें।
लालच बुरी बला हैं – Moral Stories in Hindi (नैतिक शिक्षा पर कहानी)
एक मजदूर जब वृद्ध हो गया और मजदूरी करने की उसमें सामर्थ्य न रही, तो पेट भरने के लिए उसने कोई रोजगार करना चाहा। मजदूर गरीब तो था ही, रोजगार के लिए उसके पास रुपया कहाँ था? बगैर रुपये रोजगार कैसे हो सकता था?
खूब सोच-विचार के बाद एक-सौ रुपये कर्ज लेकर उसने कुछ मुर्गियां खरीद ली। मुर्गियां जो अंडे देती, उन अण्डों को बेचकर वह अपने बाल-बच्चों का पालन करने लगा।
उन मुर्गियों में उसे एक ऐसी मुर्गी मिल गई, जो रोज एक सोने का अंडा देती थी। मजदूर रोज सोने का अंडा पाकर बड़ा खुश था। वह उस अंडे को रोज बेच देता और बड़े आराम के साथ बाल-बच्चों की गुजर करता था।
एक दिन उसने सोचा, मुर्गी रोज सोने का एक ही अंडा देती है, एक अंडे को बेचकर मैं अपने बाल-बच्चों का पेट ही पाल सकता हूँ, उससे ज्यादा पैसा नहीं मिल सकता। अगर एक साथ अधिक सोने के अंडे मिल जाये तो उन्हें पाकर मैं अमीर बन सकता हूँ।
ऐसा सोच-विचार कर वह ज्यादा अंडे पाने के लिए उतावला हो गया, उसी उतावलेपन में उसने अधिक अंडे पाने की गरज से उस मुर्गी का पेट चीर डाला। पेट चीरने पर ज्यादा अंडे मिलना तो दूर, उसे जो एक अंडा मुर्गी रोजाना देती थी वह भी नहीं मिलने लगा, बल्कि वह मुर्गी भी मर गयी।
मुर्गी के मर जाने पर वह मजदूर बहुत दुखी हुआ और अपनी समझ को कोसने लगा। वह मन में कहने लगा-‘यदि मैं लालच न करता तो मुर्गी क्यों मेरे हाथ से जाती?’
Moral Story : सच है-लालच बुरी बला है।
लोभ का फल – Moral Story in Hindi (नैतिक शिक्षा पर कहानी)
पुराने जमाने में दिल्ली में सहसरूप नामक एक व्यक्ति रहता था। यमुना नदी में जाल फेंक कर मछली पकड़कर उन्हें बाजार में बेचकर उससे होने वाली आमदनी से अपने परिवार का बड़े आराम से गुजारा चलाता था। इतने में ही उसका परिवार सुखी और संतुष्ट था।
एक दिन उसने यमुना नदी के घाट पर जल में जाल फेंका तब एक भी मछली उसके जाल में नहीं फंसी।
अबकी बार उसने जाल फेंका तब उसके जाल में एक बहुत बड़ा कछुआ फंस गया। तब उसने सोचा कि इसी को बाजार में बेच दूं तो कुछ आमदनी हो जाएगी।
वह कछुए को अपने थैले में डालने लगा तो कछुआ बोला दोस्त मुझे बेचकर तुम्हें कितनी आमदनी हो जायेगी ? मुझे एक बार तुम अपने घर तक जाने दो मैं तुम्हारे लिये एक वेश कीमती रत्न लाकर दूंगा।
जिससे तुम जिन्दगी भर बड़े आराम से खाओगे तो भी नहीं घटेगा। उसने कछुए पर विश्वास करके उसे जल में छोड़ दिया। कछुआ पानी में घुसकर अपने घर तक पहुँच कर एक लाल मणि लाकर सहसरूप को सौंप दिया।
लाल मणि की लाल रोशनी ने उसे चकरा दिया। सहसरूप के दिल में एक दूसरा लाल मणि और पाने की लालसा जाग गई। उसने उस लाल मणि को अपनी जेब में -डाल लिया और कछुए को एक दूसरा लाल और लाने को कहा।
कछुआ भी चतुर था, उसने उसके अति लोभ को भांप लिया। कछुए ने उसे सबक सिखाने का विचार कर कहा-मेरे प्यारे दोस्त मेरे घर में तरह-तरह के लाल मणि भरे पड़े हैं तुम मुझे यह लाल मणि दे दो ताकि में इससे मिलान करके लाने में कामयाब हो सकू।
सहसरूप ने वह लाल दूसरे लाल को पाने के लोभ में कछुए को लाल मणि दे दिया।
कछुआ लाल मणि को लेकर यमुना के गहरे जल में गोता लगाकर गहराई में लाल मणि रखकर पानी से बाहर आकर सहसरूप से बोला, मेरे लालची दोस्त तुमने दूसरे लाल मणि को पाने के चक्कर में पहला लाल मणि भी अपने हाथ से खो दिया।
अब वह लाल मणि को खोने के गम में घाट पर बैठकर रोने लगा। कछुआ तो कहकर पानी के अन्दर समा गया। | वह अपने आप में पश्चाताप करने लगा। काश! मैंने लोभ न किया होता तो यह दुख नहीं देखना पड़ता।
उसने सौगंध खाई कि भविष्य में कभी भी लोभ नहीं करूंगा।
मूर्ख राजा – best moral stories in hindi (नैतिक शिक्षा पर कहानी)
बहुत पुरानी बात है। एक राजा के घर बड़ी प्रार्थनाओं के बाद एक बेटी जन्मी। बेटी बहुत सुन्दर और प्यारी थी। धीरे-धीरे लड़की बड़ी होने लगी और पाँच साल की हो गई। पर राजा बेचैन हो सोचने लगा-मेरी बेटी कब बड़ी होगी, सारी कलायें कब सीखेंगी, कब उसका विवाह करूँगा और कब गंगा नहाऊँगा? यह सब जितना जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा रहेगा।
राजा इन्हीं बातों के कारण चिंतित रहने लगा। एक दिन उसने अपने सभी बड़े नामी वैद्य-हकीमों को बुलाया और अपनी चिन्ता के विषय में कहा कि-आप सभी नामी वैद्य-हकीम हैं। मेरी बेटी पाँच साल की हो गई है। आप लोग इसके लिए कोई ऐसा दवा बनाएं जिससे वह कम से कम पन्द्रह साल की हो जाए।
राजा का हुक्म सुनकर सारे वैद्य-हकीम चौंक गए कि राजा की कैसी मांग है? उम्र तो साल गुजरने पर ही बढ़ेगी अतः राजा की बेटी को तुरन्त ही पन्द्रह साल का कैसे बनाया जा सकता है? वे सब जानते थे कि राजा को समझाना बेकार है। राजा ने जो हुक्म दे दिया तो उसे पूरा ही करना होगा। इसलिए सभी चुप रहे। उन सभी वैद्यों में एक मुखिया था। वह बहुत ही चतुर था। वह कुछ देर सोचकर बोला-महाराज, एक दवा है जो पुराने ग्रन्थों में बताई गई है। किन्तु महाराज उस दवाई को बनाने के लिए हिमालय से जड़ी-बूटियाँ लानी होंगी जो कि बड़ी खोजबीन करने पर ही प्राप्त होती हैं।
यह सुनकर राजा खुश हो गया और बोला-जल्दी जाइए वैद्यराज, तुरंत ही निकल जाइए। जितना धन चाहिए, राजकोष से ले लीजिए।
वैद्यराज कुछ देर गम्भीर रहने के बाद बोला-महाराज! इस खास दवा को देने का एक नियम है कि जिसे दवा दी जाए उसे बिल्कुल अकेले रखा जाता है। जब तक मैं दवा लेकर न लौटूं तब तक आप अपनी बेटी को नहीं देख पाएंगे। अगर आपने अधीर होकर मेरे आने से पहले बेटी को देख लिया तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। आप सोच-समझकर ही हुक्म दीजिए। राजा ने तुरंत शर्त मान ली।
राजा की बेटी को एक अकेले सुंदर महल में रख दिया गया जहां उसे कोई न देख सके। उसकी देख-रेख के लिए दो वैद्य नियुक्त किए गए। वैद्य मुखिया अपने साथ एक दूसरे वैद्य को लेकर राज्य छोड़ हिमालय यात्रा को चला गया।
इसी तरह एक के बाद एक साल बीतने लगे। राजा बीच-बीच में उतावला होता। कई बार रानी को लेकर भवन तक पहुँच जाता पर पहरे पर तैनात वैद्य उसे समझा-बुझाकर वापस भेज देते।
इसी प्रकार दस साल बीत गए। राजा की बेटी पन्द्रह पार कर सोलहवें साल में लग गई थी। अब वैद्यराज अपने साथी के साथ कुछ जड़ी-बूटियाँ लेकर लौटे। राजा के सामने सब जड़ी-बूटियाँ रखीं। फिर दिखावा करते हुए बोला-महाराज, आपके धीरज की परीक्षा अब पूरी हुई। ईश्वर के आशीर्वाद से सिद्ध वैद्यों की बताई दवा ला पाएं। हम कल ब्रह्म-मुहूंत में आपकी बेटी को देंगे। फिर उसे आपके सामने लाएंगे।
राजा की बेटी इस बीच एक नन्हीं चुलबुली बच्ची से जवान हो चुकी थी।
दूसरे दिन सुबह उसे कुछ पत्तियाँ पीसकर पिलाई और सारे वैद्य उसे लेकर दरबार में उपस्थित हो गए।
दस साल बाद राजा ने जब अपनी बेटी को देखा तो वह हैरान रह गया। क्योंकि उसकी बेटी अब जवान हो गई थी। उसने वैद्य का धन्यवाद किया और ढेर सारा ईनाम देकर उन्हें विदा किया।
ऐसा था तेनाली राम – best moral stories in hindi
तेनाली राम विजय नगर के राजा कृष्ण देवराय के दरबार में विदूषक था। वह महाराज का मित्र भी था और सलाहकार भी। एक दिन महाराज ने किसी बात से नाराज होकर उसे देश निकाला दे दिया। तेनाली राम भी रूठ कर चला गया।
जब तेनाली राम कई दिनों तक वापस नहीं आया तो महाराज को चिंता हई और उन्होंने उसे खोजने के लिए इधर-उधर दूत भेजे। मगर सभी निराश होकर लौट आए।
अब तो महाराज और भी परेशान हो गए कि आखिर तेनाली राम कहां चला गया? – तब काफी सोच-विचार के बाद उन्हें एक तरकीब सूझी। उन्होंने राज्य के सब शहरों और दोराहों पर घोषणा करवा दी कि महाराज अपने शाही कुएं का विवाह करा रहे हैं। अत: सभी गांवों के मुखियों को आदेश दिया जाता है कि सभी अपने-अपने कुओं को लेकर राजधानी पहुंचे। इस आज्ञा का उल्लंघन करने पर दस हज़ार स्वर्ण मुद्राएं दंड स्वरूप वसूली जाएंगी।
जिसने भी यह आदेश सुना, दंग रह गया। कहीं कुएं भी कहीं लाए-ले जाए जा सकते हैं?
कुओं की भी भला कहीं शादी होती है?
लगता है, महाराज सठिया गए हैं। लोगों में इसी प्रकार की बातें होने लगीं।
उधर तेनाली राम एक गांव में जाकर रहने लगा। उस गाँव में भी यह खबर फैल गई। उस गाँव में मुखिया भी परेशान थे कि आखिर कुएं को राजधानी कैसे लेकर जाएं? वे कुछ लोगों के साथ बैठे विचार-विमर्श कर रहे थे।
तेनाली राम समझ गया कि महाराज ने उसे खोजने के लिए ही यह चाल चली है। अतः वह स्वयं मुखिया के पास गया और बोला-आप चिंता न करें। आपने अपने गाँव में आश्रय देकर मुझ पर उपकार किया है, इस उपकार का बदला मैं अवश्य चुकाऊँगा। मैं आपको एक तरकीब बताता हूँ। आप राजधानी जाने की तैयारी कीजिए।
तत्पश्चात् तेनाली राम ने उन्हें तरकीब बता दी। मुखिया चार-पाँच आदमियों को साथ लेकर राजधानी आ पहुँचा। राजधानी के बाहर सभी ने डेरा डाला। मुखिया के आदेश पर एक आदमी राज दरबार में पहुँचकर बोला-महाराज! हमारे गाँव के कुएं शादी में शामिल होने आए हैं।
कहां है? महाराज चौंके।
राजधानी के बाहर रुके हुए हैं। उनका कहना है कि आप अपने कुओं को उनके स्वागत के लिए भेजें।
यह सुनते ही महाराज समझ गए कि उस के पीछे तेनाली राम का दिमाग़ है। उन्होंने तुरन्त उन ग्रामीणों से पूछा-सच-सच बताओ कि यह बात तुम्हें किसने सुझाई है? – गांव वालों ने बता दिया।
तब महाराज स्वयं उन गांव में पहुंचे और तेनाली राम को सम्मान सहित वापस लेकर आए। इतना ही नहीं जिस गाँव के मुखिया ने उन्हें आश्रय दिया था, उसे भी बहुत सा ईनाम दिया गया तथा ग्रामीणों में भी पुरस्कार आदि बंटवाकर अनुग्रहित किया।
गुरु, माता-पिता की सेवा ही सच्ची भक्ति है।
भीष्म पितामहसब धोखों से बड़ा धोखा अपने आप को धोखा देना होता है।
योली
चंचल की सैर – best moral stories in hindi (नैतिक शिक्षा पर कहानी)
चिन्नी गौरेया की बेटी चंचल गौरेया ने थोड़े ही दिन से अभी उड़ना सीखा था। उसके पंख अभी इतने मजबूत न थे कि वह कहीं उड़कर आ जा सके। चंचल की मां ने कई बार चंचल को मना किया था कि वह अकेले कहीं इधर-उधर न उड़ा करे, फिर भी चंचल मौका पाते ही अपने घौंसले से अकेले ही इधर-उधर उड़ जाती थी।
“चंचल, अभी तुम बहुत छोटी हो। अभी तो तुम्हारे पंख भी अच्छी तरह से नहीं खुले हैं। ऊपर से तुम्हें ठीक से उड़ना भी नहीं आता। अगर तुम इस तरह फुदक-फुदक कर अकेले ही घौंसले से बाहर उड़ने की कोशिश करोगी तो कहीं खो जाओगी।” चिन्नी ने प्यार से चंचल को डांटते हुए कहा। वह फिर बोली, “अगर तुम्हें उड़ने की इतनी ही जल्दी है तो तुम हमारे साथ-साथ ही उड़ा करो। इस से कहीं खोने का डर भी नहीं रहेगा।”
“मुझे ज्यादा भीड़ में उड़ना पसंद नहीं है।” चंचल ने कहा।
“यह तो कोई बात नहीं हुई। चलो मान लिया कि तुम भीड़ में नहीं खुले आसमान में उड़ना पसंद करती हो। लेकिन इसके लिए तुम्हें अच्छी तरह से उड़ना भी तो आना चाहिए। चंचल, तुम जानबूझ कर ग़लती कर रही हो। तुम जानती हो कि तुम्हारे अकेले उड़ने से कोई तुम्हारा शिकार भी कर सकता है।” चंचल की मां चिन्नी ने चंचल को समझाते हुए कहा।
चंचल ने चिल्ला कर कहा, “मुझे किसी के पीछे-पीछे उड़ना अच्छा नहीं लगता। जिधर एक गौरेया उड़ती है-उधर ही सब गौरेया उड़ जाती हैं। यह मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।”
“लगता है किसी ने तुम्हारे कान भर दिए हैं। बाहर की दो-चार बातें सुन कर तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है चंचल।” चिन्नी ने गुस्से से कहा, “किसी के पीछे उड़ने का मतलब समझती हो तुमहम अपने लिए भोजन इकट्ठा करने की खोज में अपने झुंड के साथ साथ उड़ती हैं।
झुंड से अलग होकर हम कहीं भी खो सकती हैं। कोई भी हमारा शिकार कर सकता है। लेकिन अपने झुंड के साथ चलने में हमें इस तरह का कोई डर नहीं रहता। हमें अपने खाने के लिए सारा दिन मेहनत करनी पड़ती है। गौरेया बिना सोचे समझे बेवजह किसी के पीछे नहीं उड़ती-समझ गई तुम।” चिन्नी ने चंचल को डांटते हुए कहा और उड़ती हुई बाहर चली गई।
उस दिन तो चंचल ने अपनी माँ का कहना मान लिया लेकिन दूसरे दिन वह चुपचाप अपने घौंसले से निकल गई। अपने घौंसले से निकल कर चंचल उड़ती हुई काफी दूर निकल गई। नीले-नीले खुले आसमान में उड़ते हुए चंचल को बहुत अच्छा लग रहा था। वह अपनी ही धुन में मगन उड़ती ही जा रही थी। उसे पता हो नहीं कि वह अपने घौंसले से कितनी दूर निकल आई है।
उड़ते-उड़ते चंचल के कमजोर पंख थकने लगे। सूरज की तेज रोशनी से चंचल के पंख व शरीर दोनों जलने लगे। वह वापस अपने घौंसले की तरफ जाने के लिए मुड़ी लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए।
चंचल के पंख पूरी तरह जवाब दे चुके थे। वह बुरी तरह से हांफ रही थी। चंचल अपने को संभाल न पाई और वह नीचे झाड़ियों में जाकर गिर पड़ी। कांटों से चंचल के पंख बुरी तरह छिल गए थे। वह दर्द के मारे कराह रही थी। लेकिन उस सुनसान जगह में उसे बचाने वाला कोई नहीं था। अब चंचल को अपनी माँ की बात याद आ रही थी। अब सिवाय रोने के वह और कर भी क्या सकती थी।
जब चंचल काफी देर तक वापस नहीं लौटी तो उसकी मां चिन्नी को उसके लिए चिंता सताने लगी। चिन्नी ने आस-पास चंचल को बहुत तलाश किया मगर वह कहीं दिखाई नहीं दी। ढूंढते-ढूंढते चिन्नी काफी दूर निकल गई लेकिन चंचल का कहीं कुछ पता नहीं चला। बेचारी चिन्नी निराश होकर वापस लौटने ही वाली थी कि उसकी नज़र नीचे झाड़ी में पड़ी। उसने देखा कोई नन्हीं सी चिड़िया झाड़ियों में गिरी हुई थी।
चिन्नी काफी ऊंचाई पर थी। इतनी ऊंचाई से नीचे झाड़ी में गिरी हुई चिड़िया को पहचानना मुश्किल था। इसी तरह कहीं मेरी चंचल भी न पड़ी हो। चिन्नी के मन में उस चिड़िया के लिए दया आ गई कहीं यह मेरी चंचल तो नहीं। चिन्नी के मन में शंका हुई। यह सोचकर वह जल्दी-जल्दी नीचे उतर आई। पास आकर देखा तो वह चंचल ही थी।
चंचल की आँखें बंद थीं और वह दर्द के मारे कराहती हुई ‘मां-मां’ पुकार रही थी। उसके पंख बुरी तरह छिल गए थे और उनमें से खून बह रहा था।
चंचल की यह दशा देखकर चिन्नी की आँखों में आंसू आ गए। उसने जल्दी से चंचल को झाड़ी से बाहर निकाला और अपनी चोच में पानी भर कर ले आई। उसने प्यार से चंचल को पानी पिलाया। उसके रिसते हुए घावों को अपने पंखों से सहलाया। जब चंचल का दर्द धीरे-धीरे कुछ कम हुआ तो उसने आहिस्ता-आहिस्ता आँखें खोली तो देखा उसकी मां चिन्नी उसके सिराहने बैठी हुई थी। चंचल मां को देखते ही उससे लिपट गई और रोने लगी।
“मां, मुझे माफ़ कर दो। अब मैं कभी अपने-आप अकेले बाहर नहीं जाऊँगी।” चंचल ने रोते हुए कहा।
चिन्नी ने प्यार से चंचल को सहलाते हुए कहा, “तुम्हें अपनी ग़लती का एहसास हो गया यही तुम्हारी माफ़ी है। अब तुम्हें पता चल गया होगा कि मैं तुम्हें अकेले जाने से क्यों मना करती थी। आज अगर मैं समय पर नहीं पहुंचती तो शायद तुम बच भी न पाती। बिना सोचे-समझे कभी कोई काम नहीं करना चाहिए।”
“आओ चंचल अब धीरे-धीरे मेरे पीछे पीछे उड़कर घर चलो।” चिन्नी ने कहा।
चंचल और चिन्नी उड़ कर अपने घौंसले में आ गई।
साहसी बालक – नैतिक शिक्षा पर कहानी
“भाई रमेश?” “हां, कहो भाई राजू।”
“तुम्हारे गांव रामपुर के क्या हाल-चाल हैं?”
“बहुत अच्छे हाल-चाल हैं। गांव में सभी लोग कुशल-मंगल से रह रहे हैं।” रमेश ने बताया। “मैंने सुना है कि तुम्हारे गांव रामपुर के पास ही बहुत सुंदर वन है जिसमें तरह-तरह के जानवर रहते हैं।” राजू ने कहा।
“तुमने सही सुना है।” रमेश ने उत्तर दिया, “चलो न कुछ दिनों के लिए हमारे गांव। वहाँ मैं तुम्हें सुंदर वन की सैर करवाऊंगा।” रमेश ने राजू से कहा।
गर्मी की छुट्टियों में रमेश ने राजू से कहा, “राजू स्कूल की छुट्टियां हो गई हैं। मैं अपने गांव जा रहा हूँ। तुम भी चलो मेरे साथ। रास्ते में सुंदर वन भी है। उसकी सैर करते हुए घर चलेंगे।” राजू यह सुनकर बहुत खुश हुआ। वह झट से रमेश के साथ उसके गांव जाने को तैयार हो गया।
‘रमेश, आज मैं किसी वन की सैर पहली बार कर रहा हूँ। पहले कभी मुझे ऐसा आनन्द कहीं और घूम कर नहीं मिला जितना आनन्द आज इस सुन्दर वन की सैर करके मिल रहा है।” घर लौटते समय जब दोनों सुन्दर वन के आखिरी भाग में से गुजर रहे थे तो वहां छोटे-बड़े शेर काफी संख्या में घूम रहे थे। उन्हें देख कर राजू डर के मारे चिल्ला पड़ा, “अरे यह तो शेर है-अगर इनमें से किसी ने भी एक झपट्टा मारा तो मैं तो हमेशा के लिए ऊपर चला जाऊंगा। फिर बेचारे मेरे माता-पिता का क्या होगा?”
“डरो नहीं राज, सुन्दर वन के ये शेर आदमखोर नहीं हैं। यह किसी भी इंसान को हानि नहीं पहुंचाते। हां, ये इस वन के छोटे जानवर जैसे-हिरन, खरगोश आदि को पकड़ कर अपनी भूख मिटाते हैं।” रमेश ने हंसते हुए कहा।
“बड़े ही आश्चर्य की बात है। देखने में ऐसे हिंसक लगते हैं जैसे कि बस अभी खा जाएंगे। मगर वास्तव में इतने शांति-प्रिय शेर मैंने अब से पहले कभी नहीं देखे।” राजू ने कहा।
सुन्दर वन का गुणगान करता हुआ राजू रमेश के साथ उसके गांव पहुंचा। घर पहुँच कर रमेश ने राजू को अपने माता-पिता से मिलवाया।
“मां, यह राजू है मेरा सबसे अधिक प्रिय दोस्त। गर्मी की छुट्टियों में यह यहां के सुन्दर वन की सैर करने आया है।”
यह सुनकर रमेश के पिता जी ने कहा, “हां बेटे राज, हमारे गांव का सुन्दर वन बहुत ही शांतिप्रिय और देखने लायक वन है। इस वन में तरह-तरह के जानवर पशु-पक्षी रहते हैं। मगर कभी किसी इन्सान
को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते। लेकिन इधर कुछ दिनों से बाहर के किसी जंगल का एक शेर इस वन में आ गया है। वह बड़ा ही हिंसक है। जो पीछे से अचानक लोगों पर हमला कर देता है। यहां तक कि इस वन के छोटे पशु-पक्षियों को भी नहीं छोड़ा। सब लोग बहुत परेशान हैं। पता नहीं इससे कैसे छुटकारा मिलेगा।”
“आप चिंता न करें अंकल। हम इस दुष्ट शेर से छुटकारा पाने का कोई न कोई उपाय ज़रूर ढूंढ लेंगे।” राजू ने कहा।
जब से शेरु शेर रामपुर गांव के सुन्दर वन में आया था, तब से कितने ही लोगों की जानें जा चुकी थीं। आखिर में तंग आकर रामपुर गांव के मुखिया ने यह घोषणा की कि जो कोई इस हिंसक शेर को मारेगा, उसे पूरे गांव की तरफ से एक चांदी का कप पुरस्कार के रूप में दिया जाएगा।
यह खबर सुनकर राजू ने रमेश से कहा, “रमेश, मेरे दिमाग़ में एक तरकीब आई है। मुझे पता है यह काम बहुत ही कठिन है लेकिन असंभव भी तो नहीं है। अगर सूझ-बूझ से और थोड़ी चालाकी से काम किया जाए तो शेर को ख़त्म किया जा सकता है।”
राजू और रमेश दोनों अपने प्लान के मुताबिक भेड़ के एक बच्चे को लेकर सुन्दर वन की ओर चल पड़े। वन में पहुंच कर राजू ने भेड़ के बच्चे को एक पेड़ से बांध दिया और खुद राजू व रमेश एक हाथ में बन्दूक और दूसरे हाथ में रस्सी पकड़े पास ही एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गए।
एक जगह बंधा होने की वजह से भेड़ का बच्चा बड़ी ज़ोर से “मैं…मैं…मैं’ चिल्ला रहा था।
“राजू, कहीं इस भेड़ के बच्चे को शेर खा गया तो इसका पाप हमारे सिर होगा। पता नहीं तुम्हारे प्लान के मुताबिक हम इस भेड़ के बच्चे को बचा भी पाएंगे या नहीं?” रमेश ने कहा।
“क्या बात करता है यार? मेरा प्लान अगर फेल हो गया तो तुम जो चाहे सजा मुझे दे देना और वैसे भी पुरस्कार का कप तो लेना ही है। इसलिए मेरा प्लान फेल हो ही नहीं सकता।” राजू ने कहा और दोनों इस बात पर ज़ोर से हंस पड़े।
इतने में राजू का ध्यान शेर की तरफ गया जो भेड़ के बच्चे की आवाज़ सुनकर उसी तरफ बढ़ा जा रहा था। भेड़ का बच्चा ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहा था। राजू और रमेश सावधान हो गए। राजू ने ऊपर से रस्सी का फंदा लटका दिया और जैसे ही शेर भेड़ के बच्चे को खाने के लिए आगे बढ़ा, उसी समय राजू ने ऊपर से रस्सी खींच ली जिससे शेर के दोनों पैर रस्सी के फंदे में जकड़ गए और वह दहाड़ मार कर ज़मीन पर गिर पड़ा। इतने में सारे गांव वाले भी आ गए। फिर सब ने मिल कर शेर के ऊपर जाल डालकर उसे पकड़ लिया।
इतने में मुखिया जी के एक आदमी ने शहर के चिड़ियाघर में शेर के पकड़े जाने की ख़बर भिजवा दी। शेर के पकड़े जाने की खबर सुनकर कुछ ही घंटे बाद चिड़ियाघर वाले शेर को पिंजरे में बंद करके ले गए।
मुखिया जी ने उसी शाम गांव में एक बड़ी सभा का आयोजन किया। सभा में आस-पास के गांव के लोग भी दोनों साहसी बच्चों
को देखने के लिए आए हुए थे।
मुखिया जी ने राजू और रमेश को गले से लगा लिया और कहा, “शाबाश बच्चो! तुमने आदमखोर और खूखार शेर को पकड़ कर हम सब पर बड़ा ही उपकार किया है।”
और मुखिया जी ने अपने कहे मुताबिक दोनों बच्चों को चांदी का कप भेंट किया।
लहसुन प्याज अदरख – नैतिक शिक्षा पर कहानी
टुनटुन झा को उसके मालिक ने एक बाजार से कुछ सौदा खरीदकर लाने का हुक्म दिया-टुनटुन झा, जरा जल्दी जाओ और बाजार से लहसुन, प्याज, अदरख खरीद लाओ। “जी…..जी मालिक ! अभी जाता हूँ।’ मालिक से रुपये लिया और चल दिया बाजार की ओर ।
टुनटुन झा को भीतर-भीतर भय हो रहा था कि कहीं वह सामानों का नाम भूल न जाय-इसीलिये मन-ही-मन लहसून, प्याज, अदरख का मानस जाप करता हुआ रास्ते पर जा रहा था।
रास्ते में एक बरगद के पेड़ पर एक तोता सीता-राम, राजा दशरथ की रट लगा रहा था । सुनने के लिए लोगों की भीड़ लगी हुई थी।
टुनटुन झा रास्ते से गुजरा तो उसे उत्सुकता हुई-आखिर बात क्या है-लोगों की भीड़ लगी हुई है। निकट जाकर पूछा बात क्या है भाई, भोज-उज का तो प्रोग्राम नहीं है ? पेड़ के नीचे आसन लगाये बैठे गेरूआधारी बाबा ने कहा
“हाँ भोज का तो प्रोग्राम चल ही रहा है। ऊपर डाल पर सुनो, भोज की सामग्री बाँट रहा है।”
‘ओ-5 5 लहसून, प्याज, अदरख ।’ टुनटुन झा ने बोला। बाबा को समझने में देर न लगी-“जाकी रही भावना जैसी प्रभु मुरत देखी तिन तैसी” यह मूर्ख लहसून, प्याज, अदरख खरीदने जा रहा है इसीलिये सीता, राम, राजा दशरथ की जगह इसे लहसुन, प्याज, अदरख सूझ रहा है । बोला, “हाँ, तुम जो सुन रहे हो वही समझो।”
टुनटुन झा देर करना उचित न समझा। आगे बढ़ गया ।
कुछ दूरी में रास्ते के किनारे व्यायाम का अखाड़ा पड़ता था। वहाँ पहलवान लोग दण्ड, कुश्ती, कसरत कर रहे थे: पहलवान के मास्टर सभी प्रशिक्षणार्थी को रटा रहे थे दण्ड, कुश्ती , कसरत…….
टुनटुन झा खड़ा होकर देखने लगा और दण्ड, कुश्ती, कसरत की जगह लहसून, प्याज, अदरख मन-ही-मन रट रहा था ताकि वह लहसून, प्याज, अदरख लाने को भूल न जाय ।
“क्या बार-बार लहसून, प्याज, अदरख रट रहे हो, यह सब सामानं लेना है तो मेरे साथ बाजार चलो, वहीं खरीदवा दूंगा।” टुनटुन झा ने जोर से पहलवानों को आवाज दी।
पहलवान लोग एक क्षण तो रूक गये और सुना कि टुनटुन झा क्या बोल रहा है । पहले तो पहलवानों को टुनटुन झा की मूर्खता पर खूब हँसा और बोला-“अबे मूर्ख ब्राह्मण ! तेरा बाप कहीं कभी दण्ड, कुश्ती, कसरत नहीं देखा है क्या….? जो लहसून, प्याज अदरख सुना रहा है तू ।”
टुनटुन झा मन-ही-मन बोला-ये साले लोग उल्लू हैं । उल्लू भला इस टुनटुन झा जैसे हंस की बात क्या मानेंगे । इसे तो दिन की ही रात बोलने में मजा आता है । मन-ही-मन उलटे चोर कोतवाल को डाँटे कहकर आगे बढ़ गया।
रास्ते में एक नदी पड़ती थी। जल धारा बहुत तीव्र थी। टुनटुन झा पार होने में पैर के नाखून धरती पर गड़ाये थे और दोनों हाथ से अपनी धोती पकड़े थे कि भींग न जाय । इसी ख्याल में ‘लहसून, प्याज, अदरख’ भूल गया। अब क्या बाजार से खरीदेगा, यह भूल गया ।
पुनः पानी में उतरकर खोजने लगा, लहसून, प्याज, अदरख । लेकिन मन में खोया चीज जल में कैसे मिलता। टुनटुन झा पानी को ठीक गदहा जैसा गंदा कर दिया था मगर ख्याल नहीं आया। पानी को टटोलना जारी था। तभी एक सिपाही आया । टुनटुन झा को परेशान देखकर पूछा
“अरे भाई टुनटुन झा, क्या खो गया है पानी में ?” लेकिन टुनटुन झा बोले तो क्या बोले ! जो चीज खो गया था वही तो ख्याल नहीं आ रहा था।
“अरे भाई बोलो – सोना, चाँदी, रूपये, पैसे क्या खो गया…..है ? अंगूठी सोने की तो नहीं गिर गयी हैं ” फिर भी टुनटुन झा बोल नहीं आ रहा था।
“अबे ? तू आदमी है या जानवर । मैं ले लूंगा क्या ? पानी में क्या गिर गया है……आखिर बोलोगे तब न । हो सकता है कि मैं भी तुम्हारी मदद कर सकूँ?-सिपाही पहले डाँटकर फिर समझाने के स्वर में बोला । “वो…..कुछ नहीं…..जो हेराया है वही खोज रहा हूँ।” टुनटुन झा ने पसीने से लथपथ बोला।
“बड़ा मुर्ख है ।” मन-ही-मन सिपाही ने कहा-‘वो कुछ नहीं, जो हेराया वहीं खोज रहा हूँ ?
सिपाही का मूड गर्म हो रहा था इस बार खींझकर पूछा-“अबे बोल न क्या गिरा है?”
“जो गिरा है सो गिरा है, मेरा गिरा है-तुम्हारा क्या ? टुनटुन झा क्रोध से बोला-खोजते-खोजते परेशान हो गया हूँ, ……और परेशान कर रहा है।”
इस बार सिपाही ने भोजपुरी झाड़ा-“ऐसन पुल्टी मारब सार कि लहसुनिये पाद पदा देव? सार….नाटक.”
टुनटुन झा प्रसन्नता से उछल पड़ा। पानी के ही बीच में-“मिल गया सिपाही जी, मिल गया-लहसून, प्याज, अदरख ।”
सिपाही ने खूब खटखटा कर हँसा। पिंटू की कहानी सुनकर वर्ग में हँसी का ठहाका गूंज गया।
चाँटा चाँटी – नैतिक शिक्षा पर कहानी
इस बार सुनीता खड़ी हो गयी कहानी सुनाने के लिए। खड़ी होकर बोली……”मैं जो कहानी सुनाने जा रही हूँ उसका शीर्षक है “चाँटा-चाँटी” ।
कल्याणपुर में टुनटुन झा नामक एक ब्राह्मण रहता था । टुनटुन झा जितना बेवकूफ थे उतना चालाक भी थे। याने स्वयं बुद्ध बनते तो लोगों को भी बुद्ध बनाने में पीछे नहीं हटते थे। एक दिन उसके कुछ साथियों ने सोचा टुनटुन झा को आज बोर करना है । सबों ने हाँ में हाँ कर दिया।
एक साथी-टुनटुन ! आज मैंने एक स्वप्न देखा है ?” “वह क्या ? सुनाने लायक अगर है तो हमलोगों को भी सुनाओ।”
साथी….हाँ-हाँ….क्यों नहीं, बिल्कुल सुनाने लायक है। और अगर सुनाने लायक नहीं भी रहता तो साथियों के बीच छिपाने की क्या जरूरत ।
“तो सुनाओ भाई ! क्या स्वप्न देखे हो? कौन-सा चमत्कार है तुम्हारे स्वप्न में ?” सबों ने कहा।
“तो सुनो।” साथी ने स्वप्न की बात सुनानी आरंभ कर दी। स्वप्न में मैं और टुनटुन जी एक साथ भ्रमण करने के लिए निकले । रास्ते में जाते-जाते धोबी का गदहा दिखाई पड़ा। धोबी के पास कपड़े नहीं थे। हमने विचार किया इस तरह की सवारी पर लोग तो चढ़ते हैं लेकिन गदहे पर सवार होते हमने किसी को नहीं देखा है । क्यों न गदहे पर आज चढ़ा जाय।
“ए भैया गोविन्द ! तुम अपने गदहे पर चढ़ने की फीस क्या लोगे ?” . धोबी सोचा-लगता है ये लोग अनाड़ी है । अतः हम दोनों से दो-दो रूपये लेकर गदहे पर चढ़ने का आदेश दे दिया। हमने बड़े मजे से चढ़कर ससुराल की ओर चला । एक गाँव में तो हम दोनों का ससुराल है ही। रास्ते में मंत्री जी का हेलीकॉप्टर गिरा हुआ था । हम दोनों चुपचाप हेलीकॉप्टर के पंखे पर दुबक गये।
साथियों ने बीच में टोका-“ऐसा भी कहीं होता है ?”
“ओह ! अरे भई, उकता क्यों रहे हो। मैं तो स्वप्न की बात बता रहा हूँ-जो कि हमारे साथ घटी है।’
“अच्छा सुनाओ-सुनाओ।’ साथियों ने कहा। टुनटुन झा का साथी फिर कहानी सुनाने लगे।
“अब देखा कि हेलीकॉप्टर हवा में बात कर रहा है तब हम दोनों साथी आपस में बात करने लगे।’ आखिर उपाय क्या है।
ऊपर से धंस मार दिया जाय । लेकिन उतनी ऊपर से धंस मारने का सीधा अर्थ है हड्डी-पसली का एक हो जाना और अगर धंस नहीं मारा जाय तो सासुरबाड़ी पहुँचने की जगह पता नहीं कौन बाड़ी में पहुंचेंगे या सीधे बंगाल की खाड़ी में पहुँचेगें। कुछ दूर निकल जाने के बाद बहुत बड़े-बड़े दो तालाब दिखाई पड़े। हमने विचार कर भगवान का नाम लेकर कूद गये नीचे। “जय बजरंग बली….! और देखते-देखते पहुँच गये दोनों दो अलग-अलग दलदली में। लेकिन देखा तो एक तालाब पाखाना का था और एक तालाब खीर का था । टुनटुन भाई तो पूरी तरह पखाना में नहा चुका था और मैं खीर में डूब चुका था। बस! मेरा लड़का खाना खाने के लिये उठाने आ गया और मेरी नींद टूट गयी।’ साथी ने कहा तो अन्य साथियों ने खूब बोर बनाया टुनटुन झा को।
“अरे भाई ! तो क्या टुनटुन झा मैल को धोया नहीं? कमीज पजामा को फेंका नहीं था ?
इस प्रकार से साथियों ने टुनटुन झा को बोर बनाना आरंभ किया तो इसे भी बुद्धि सुझ गयी किधर से। कहा। “हाँ भैया ! साथी ने ठीक कहा है। यही स्वप्न आज मैं भी देखा था । साथी खीर के तालब में से डूबकर उठा और मैं पखाना के तालाब में नहाकर उठा । साथी का स्वज तो इसी जगह समाप्त हो गया बाद हमने क्या किया नहीं किया, क्या यह तो नहीं देखा?
“नहीं तो!” साथियों ने बोला।
“मैं तो बेखबर सोया था और स्वप्न देखता चला जा रहा था। अगर आपलोग सुनना चाहें तो सुनाऊँ और नहीं तो क्या प्रयोजन ! टुनटुन झा बोला।
“हाँ-हाँ सुनाओ। देखे तुम क्या स्वप्न देखे हो।”
साथियों ने कहा और सोचा कि उसकी कहाँ से उतनी बुद्धि आ गयी कि कुछ बोर हमें भी कर पाएगा। टुनटुन झा कहानी आगे बढ़ाया-“साथी तो खीर से लथपथ था और मैं पखाना से सराबोर । पानी का तालाब अगल-बगल नहीं था। तब साथी ने कहा एक काम किया जाय । मैंने कहा-कौन काम? तब साथी ने कहा यहाँ तो कोई है नहीं ! मेरा शरीर तुम चाँटो और तेरा शरीर मैं । फिर देर कैसी ! मैं साथी के शरीर में लगे खीर को चाँट गया और साथी ने मेरे शरीर के सारे पाखाने को चाँट गया। तभी मेरी नींद टूट गयी।”
सभी साथी चुप हो गये। इन्हें अहं था कि टुनटुन झा बिल्कुल गँवार है। लेकिन टुनटुन झा ने ऐसा बोर किया साथियों की कि फिर उस दिन से किसी को बोर करने की बात ही भूल गया साथियों ने।
तो दोस्तों आप यह Moral stories in Hindi कैसा लगा। कमेंट करके जरूर बताये। अगर आप किसी अन्य कहानी को पढ़ना चाहते है जो इसमें नहीं तो वो भी बताये। हम उसे जल्द से जल्द अपलोड कर देंगे।
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