Nari Shiksha | नारी शिक्षा

एक बार नेपोलियन ने कहा, “मुझे एक सौ शिक्षित महिलाएं दो और मैं तुम्हें एक अच्छा और मजबूत राष्ट्र दूंगा।”

हमारे भारतीय समाज में औरतें कई रूतबों का आनन्द उठाती हैं। वह एक मां है, एक बेटी, एक बहन और एक परिवार की मुक्तिदाता है। वह आत्मत्याग का प्रतीत है। यदि एक औरत शिक्षित है, तो वह राष्ट्र के लिए महान् या बहुत बड़ा फायदा करेगी। एक बच्चा अपनी मां से नागरिकता का सबसे अच्छा पाठ पढ़ता है।

नारी शिक्षा (Nari Shiksha) को पुरूष शिक्षा से अधिक महत्व देते हुए कोठारी कमीशन ने विचार दिया है कि_

“मानव स्रोतों के पूरे विकास के लिए, मनुष्यों के सुधार और बचपन के प्रभावशाली सालों में बच्चों के निर्माण में, एक औरत की शिक्षा पुरूष की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण है।”

भारत में स्वतन्त्रता से पहले स्त्री शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उस समय महिलाओं को घर की चार-दीवारी में कैद रख जाता था। उनका काम केवल घरेलू काम-काज तक ही सीमित था। यहां तक कि वे ‘पर्दे’ में रहती थीं। भिन्न-भिन्न समय पर औरत और उसकी शिक्षा ने भिन्न-भिन्न रूप दिखाए।

यही भी पढ़े – Indian Farmer Essay in Hindi

आजादी के बाद नारी शिक्षा (Nari Shiksha) का विकास

आजादी प्राप्त करने के बाद इस बात पर जोर दिया गया कि समाज और राष्ट्र के सुधार के लिए औरतों को भी आगे आना चाहिए। ये भी सुझाव दिए गए कि औरतों को देश की मुख्य धारा में आना चाहिए और उन्हें सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक कार्य करने चाहिए। कई आयोगों और कमेटियों ने इसके लिए कई सुझाव दिए।

स्त्री शिक्षा (Nari Shiksha) की राष्ट्रीय कमेटी के सुझाव

यह कमेटी शिक्षा मंत्रालय द्वारा 1958 में गठित की गई।.यह कमेटी ‘श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख‘ की अध्यक्षता के अधीन गठित की गई थी। इस आयोग ने स्त्री शिक्षा के विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए

  1. पुरूष शिक्षा और स्त्री शिक्षा के बीच जो दूरी है उसे जितनी जल्दी हो सके समाप्त कर देना चाहिए।
  2. लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा के लिए राजकीय और राष्ट्रीय कौंसिल बनाई जानी चाहिए।

स्त्री-शक्ति की जरूरतों को अनुमान – पंचवर्षीय योजना के लिए योजनाबन्दी आयोग या कमीशन को स्त्री-शक्ति की जरूरतों का अनुमान लगाना चाहिए।

  • पिछड़े क्षेत्रों से सम्बन्धित लड़कियों को मुक्त यातायात और रिहायत की सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए।
  • वजीफे का प्रबन्ध होना चाहिए।
  • शिक्षा के प्रचार के कार्यक्रम होने चाहिए।
  • स्त्री शिक्षा को बल देने के लिए स्त्री शिक्षा के विषय पर भाषण प्रतियोगिताएं करवाई जानी चाहिएं।
  • अर्द्ध-सरकारी संगठन, निजी संस्थाओं, अध्यापक संगठन और जनता आदि को सहयोग देना चाहिए।
  • लड़कियों की शिक्षा का मुख्य लक्ष्य विश्वव्यापी भर्ती होना चाहिए। यह लक्ष्य 1976 से 6-11 वर्ष के आयुवर्ग की लड़कियों में होना चाहिए। 1981 से यह 11-14 वर्ष के आयु वर्ग में है। इस आयोग ने कई दूसरे सुझाव भी दिए जैसे –
  • लड़कियों के लिए तकनीकी संस्थाओं का विकास।

स्त्री शिक्षा के लिए राष्ट्रीय कौंसिल

स्त्री शिक्षा के राष्ट्रीय आयोग का महत्वपूर्ण नतीजा यह हुआ कि 1959 में स्त्री शिक्षा के लिए शिक्षा मंत्रालय द्वारा बनाया गया।

इस कौंसिल के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं ।

  1. स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में समय-समय पर हुई तरक्की के बारे में बताना।
  2. स्त्री शिक्षा से सम्बन्धित खोज का कार्य और भाषायी प्रतियोगिताओं के बारे में सुझाव देना।
  3. सरकार को लड़कियां की स्कूली शिक्षा और कॉलेज स्तर की शिक्षा के बारे में सुझाव देना।
  4. स्त्री शिक्षा के विस्तार और सुधार के लिए वित्तीय, कार्यक्रम और निगम आदि बनाना और सुझाव देना।
  5. जनता को स्त्री शिक्षा के बारे में जागरूक करवाने के लिए विभिन्न साधनों के बारे में सुझाव देना।

स्त्री शिक्षा की प्रसिद्धि

‘Bhaktavatsalam’ कमेटी ने कई रास्तों और स्रोतों का सुझाव दिया जिससे स्त्री शिक्षा को प्रसिद्ध किया जा सके। _

  1. प्रत्येक क्षेत्र में स्कूल– राज्य को 300 की आबादी वाले प्रत्येक क्षेत्र में प्राथमिक स्कूल स्थापित करने चाहिए। ये स्कूल इस तरह से स्थापित करने चाहिए ताकि ये प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल की जरूरतें पूरी कर सकें। स्कूल पहाड़ी और दूर के स्थानों पर भी जाने चाहिए यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी।
  2. महिला अध्यापकों को नियुक्ति– अध्यापकों की कमी का सवाल काफी लम्बे समय से उठता रहा हैं इसलिए अधिक से अधिक महिला अध्यापकों की नियुक्ति की जानी चाहिए। महिला अध्यापक प्राइमरी और माध्यमिक आदि स्कूल में नियुक्त किए जाने चाहिए। स्कूल के महिला स्टाफ द्वारा बच्चों के मां-बाप में एक अद्भुत विश्वास पैदा किया जा सकेगा और वे अपने बच्चों को स्कूलों में भेजेंगे।
  3. विशेष प्रोत्साहन– आर्थिक प्रोत्साहन जैसे पहाड़ी, दूरस्थ या दूसरे पिछड़े क्षेत्रों में पढ़ाने के लिए
  4. वयस्क स्त्रियों के लिए कोर्स – वयस्क स्त्रियों के लिए विशेष कोर्मों का प्रबन्ध करना चाहिए, विशेषकर ग्रामीण औरतों के लिए।
  5. लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा – केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्य सरकार को अर्थिक सहायता दी जानी चाहिए ताकि लड़कियो को मुफ्त शिक्षा दी जा सके क्योंकि गरीब, आदमी के लिए अपनी लड़की को स्कूल भेजना बहुत कठिन होता है।
  6. लड़कियों की शिक्षा के लिए विशेष मूलधन – राज्य सरकार को लड़कियों की आधुनिक शिक्षा के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न करना चाहिए और उनके लिए पर्याप्त धन मुहैया करवाना चाहिए।
  7. कमेटियों से सहायता – यदि राज्य सरकार के पास स्त्रोत सीमित हैं तो सरकार को स्थानीय कमेटियों से सहायता लेनी चाहिए ताकि लडकियों की शिक्षा के लिए प्रत्येक जरूरत को पूरा किया जा सके।
  8. अनिवार्य शिक्षा एक्ट – राज्य सरकार को वहां अनिवार्य शिक्षा एक्ट लागू करना चाहिए जहां ये लागू नहीं है। राज्य सरकार को उत्प्रेरक और प्रचार करना चाहिए ताकि बच्चों को स्कूल की तरफ आकर्षित किया जा सकें।
  9. दोहरी ड्यूटियां या शिफ्ट – दोहरी शिफ्ट प्रणाली अस्थायी रूप से उन क्षेत्रों में लागू की जा सकती जहां कि रिहायश की तंगी है।
  10. स्कूली समय में लोचता – आयोग इस बात पर सहमत है कि स्कूल का समय और छुट्टियां किसी जगह में मौसम के अनुसार बदली जा सकती हैं। यह उन मां-बाप के लिए सहायक होगा जो कि किसी विशेष मौसम में अपने बच्चों को स्कूल भेजने में असमर्थ है। इसके अतिरिक्त यह तब तक सहायक नहीं होगा जब तक मां-बाप शिक्षित नहीं होते ताकि वे ये समझने योग्य हों कि स्कूल उनके लड़के और लड़कियों के लिए कितने जरूरी हैं?
  11. पाठ्य-पुस्तकें या पाठ्यक्रम – प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक लड़कों और लड़कियों की पढ़ाई एक समान हो सकती हैं कुछ विशेष चुनने योग्य विषयों का प्रबन्ध तभी होना चाहिए यदि वे लड़कियों की रूचि के अनुसार हो।
  12. स्कूल सुधार कॉन्फ्रेंस – कम विकसित राज्यों में स्कूलों में सुधार के बारे में कॉन्फ्रेंस होनी चाहिए ताकि लोगों को शिक्षा के विकास और आधुनिकता के योगदान के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।

कोठारी कमीशन के सुझाव

कोठारी कमीशन तीनों कमेटियों के सुझावों से पूरी तरह सहमत हैं-(1) श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख द्वारा स्थापित की गई राष्ट्रीय कमेटी, (2) हंसा मेहता कमेटी के सुझाव, (3) (Bhaktavatsalam) कमेटी के सुझाव।

यह आयोग स्त्री शिक्षा के लिए कुछ नीतियों के सुझाव देता हैं- शिक्षा के प्रसार और सुधार के लिए स्त्री शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। इसके अलावा आयोग ने कुछ और सुझाव भी दिए हैं जो कि निम्नलिखित हैं

  1. मौजूदा दूरी को खत्म करना – पुरूषों तथा स्त्रियों की शिक्षा में मौजूद दूरियों को खत्म करने के लिए उपयुक्त कोशिश करनी चाहिए।
  2. विशेष मशीनरी लगाना – केन्द्रीय और राज्य सरकारों द्वारा लड़कियों तथा महिलाओं की देखभाल के लिए विशेष मशीनरी लगानी चाहिए।

कोठारी कमीशन ने निम्नलिखित सुझाव दिए

  1. प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की शिक्षा – सवैधानिक नियम को पूरा करने के लिए लड़कियों की शिक्षा की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए।
  2. माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की शिक्षा – इस स्तर पर लड़कियों की शिक्षा के प्रसार के लिए कोशिशें करनी चाहिए। लड़कियों के लिए अलग स्कूल बनवाने पर जोर दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त होस्टल, वजीफा और व्यावसायिक कोर्सी की सुविधा उपलब्ध करवाई जानी चाहिए।
  3. लड़के और लड़कियों की पढ़ाई में अन्तर – लड़के और लड़कियों की पढ़ाई में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। गृह विज्ञान विषय लागू करना चाहिए परन्तु यह अनिवार्य विषय नहीं होना चाहिए। गणित और विज्ञान की पढ़ाई को प्रोत्साहित करना चाहिए।
  4. यूनीवर्सिटी स्तर पर स्त्री शिक्षा – यूनीवर्सिटी में वजीफे आदि का प्रबन्ध होना चाहिए जैसे होस्टल में कम खर्चे पर रिहायश, लड़कियों के लिए स्नातक से नीचे के अलग कॉलेज होने चाहिए। उच्च स्नातक स्तर पर अलग कॉलेज के प्रबन्ध की जरूरत नहीं। व्यवसायिक एवं प्रबन्ध आदि कोर्सी की भी व्यवस्था होनी चाहिए।
  5. महिला अध्यापक – प्रत्येक स्तर पर महिला अध्यापक की नियुक्ति होनी चाहिए। उन्हें विशेष खर्चे दिए जाने चाहिए। जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में रिहायश आदि। .

महिला सामाख्या

इसका अर्थ है शिक्षा द्वारा औरतों की बराबरी। यह महिलाओं के लिए शक्ति का प्रोजैक्ट था जिसका लक्ष्य नौकरी प्राप्त करना नहीं था परन्तु औरतों की अपने बारे में सोच को परिवर्तित करना था और समाज के पुराने विचारों को परिवर्तित करना था। इसका लक्ष्य औरतों के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण था जिसमें वह अपनी मर्जी का ज्ञान और सूचना प्राप्त कर सके और एक ऐसी स्थिति का निर्माण करना था जिसमें वह अपनी मर्जी और रूचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सके। इस प्रोजैक्ट में 10 नियमों की कार्यसूची तैयार की गई जो स्त्री शिक्षा के प्रसार के लिए सहायक थे।

  1. प्रोजैक्ट की कार्यशाला की भूमिका का लक्ष्य दफ्तरी और अन्य एजेन्सियों को सहूलियत देना था।
  2. गांव में महिला प्रतियोगी गांव के संस्कार, स्वाभाव और समय ये सभी के लिए निश्चित करते है।
  3. योजनाबन्दी, निर्णय लेना और मूल्यांकन आदि कार्य ग्रामीण औरतों के समूह के लिए उत्तरदायी होंगे।
  4. शिक्षा को केवल साक्षरता ही नहीं समझना चाहिए।
  5. पढ़ाई का माहौल बनाना चाहिए।
  6. पढ़ाई का ढंग और तरीका औरतों की जानकारी, निपुणता और अनुभव पर आधारित होना चाहिए।
  7. प्रोजैक्ट के प्रत्येक भाग में सम्मान और समानता, आदि का वर्णन किया है।
  8. औरतों को जीवन में सुधार के लिए समय, समर्थन और बदल देना चाहिए।

इस प्रोजैक्ट के अनुसार शिक्षा स्त्रियों की स्थिति की स्थिति को ऊंचा उठाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाती है।

शिक्षा राष्ट्रीय नीति (1892)

इस नीति ने औरतों की शक्ति बढ़ाने के लिए कई स्कीमें बनाईं। कुछ विशेष स्कीमें निम्नलिखित अनुसार हैं –

  1. ऑप्रेशन ब्लैक बोर्ड स्कीम के अनुसार भविष्य में नियुक्त किए जाने वाले अध्यापकों में 50% महिलाएं होनी चाहिए।
  2. अन-औपचारिक शिक्षा के तरत 90% सहायता एन.एफ.ई. को केवल लड़कियों के लिए ही दी जानी चाहिए।
  3. इस बात के लिए कोशिश की जानी चाहिए कि ये कम से कम ५ विद्यार्थी लड़कियां हों। लड़कियों को नवोदय विद्यालय और केन्द्रीय विद्यालयों में निःशुल्क शिक्षा दी जानी चाहिए।
  4. ‘Total Literacry Campaigns (TLCS) में औरतों मुख्य केन्द्र हों। इसके अतिरिक्त महिलाओं की संख्या 60% से अधिक होनी चाहिए।

कार्यवाही का प्रोग्राम (1992)

इस कार्यक्रम ने स्त्री शिक्षा की समानता और शक्ति की जरूरत को दर्शाया। इस कार्यक्रम का लक्ष्य लिंग आदि के बारे में जानकारी देना और उसे दूर करना या हटाना या औरतों को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विकास के लिए प्रोत्साहित करना था। इसके चार तत्व निम्नलिखित हैं

  • ऊपर दिए गए लक्ष्यों की आधुनिकता के लिए खोज करना।
  • स्त्री और पुरूष की लिंग समानता के लिए मौजूदा नजरिया और मूल्यांकन विधि के बदलना।
  • अध्यापकों की सिखलाई, निर्णय लेने वाले, प्रशासन और योजनाबंदी आदि कार्य करने वालों द्वारा लिंग समानता लाने के लिए सच्ची भूमिका अदा करना।
  • स्त्रियों के विकास के लिए संस्थाओं की सीधी भूमिका।

ग्रामीण महिलाओं की शिक्षा की समस्याएं

इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद शिक्षा के सभी स्तरों में लड़कियों की संख्या काफी बड़ी है लेकिन आज भी निरक्षर बालिकाओं और महिलाओं का प्रतिशत काफी अधिक है। एक सर्वे के अनुसार आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में 57 प्रतिशत महिलाएं निरक्षर हैं। इसका मुख्य कारण है हमारे परिवारों में लड़कियों की शिक्षा के प्रति उपेक्षा का भाव।

सर्वप्रथम हमें दृष्टिकोण को बदलना पड़ेगा अर्थात् देश की आधी आबादी को मुख्य धारा में शामिल किए बगैर देश का तेजी से विकास लगभग असम्भव है। भारत गांवों का देश है। भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है, क्योंकि देश की करीब तीन-चौथाई आबादी आज भी गांवों में बसी है।

आजादी के बाद यद्यपि गांवों में ज्ञान का प्रकाश फैला है, लेकिन उसका लाभ पुरुषों को ही अधिक मिला है। ग्रामीण बालिकाएं एवं महिलाएं तो आज भी इससे वंचित है। आवश्यकता है हमारे दृष्टिकोण में बदलाव की, जिससे ग्रामीण बालिकाएं शहरी लड़कियों की भांति पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो सकें।

ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकांश लड़कियां आज भी उपेक्षामय वातावरण में जा रही हैं। माता-पिता घर में ही अपनी लड़कियों की चपलता देखकर भले ही प्रसन्न हो जाते हो, लेकिन सच तो यह है कि ये लड़कियां बाहरी दुनिया से बिल्कुल बेखबर रहकर कूप मण्डूप बनी रहती हैं।

घर की चहारदीवारी के बाहर उनकी सोच-समझ नहीं होती। जब उन्हें घर से बाहर कदम रखना पड़ता है तो वे पूर्णतः दब्बू नजर आती हैं और तब उन्हें ऐसा लगता है कि काश, यदि वे भी पढ़-लिख जाती और कुछ व्यावहारिकता सीखती, तो उन्हें हीन भावना का शिकार न होना पड़ता।

एक समय था जब लड़कियों का कार्यक्षेत्र घर की चहारदीवारी तक सीमित था और चौके-चूल्हे तक ही उनकी दुनिया सीमित थी, लेकिन आज जबकि 21वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं, ग्रामीण बालिकाओं को दुनियादारी से परिचित कराना ही होगा, तभी उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा से जोड़ा जा सकेगा।

ग्रामीण परिवेश शहरों से सर्वथा भिन्न होता है। खेत-खलियानों में महिलायें, बच्चे कार्यरत रहते हैं। लड़कियां अपने माता-पिता के साथ खेती के काम करती हैं। ऐसे में वे स्कूलों में प्रवेश नहीं ले पाती हैं और यदि ले भी लेती हैं तो वह औपचारिक होता है, व्यवहार में उन्हें स्कूल जाने का समय नहीं मिलता।

गांव के लोग अपनी लकड़ी गांवों में ही देना चाहते हैं। क्योंकि परिवेश में पली, पढ़ी और बड़ी हुई लड़की को शहरी वातावरण रास नहीं आता है। ग्रामीण लड़के भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं होते। ऐसे लड़कियों को अधिक पढ़ा-लिखाकर उनके माता-पिता कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते क्योंकि ऐसा किया, तो उतना पढ़ा-लिखा लड़का मिलना मुश्किल होगा। और फिर ग्रामीणजन अपनी लड़की के हाथ पीले करने को महत्व देते है, उनकी पढ़ाई-लिखाई को नहीं। यह सोच बदलनी होगी।

कहने को तो ग्रामीण शिक्षा के प्रचार-प्रसार की ढेरों योजनाएं चल रही हैं तथा कागजों पर हमने साक्षरता की दर बढ़ा भी ली है, लेकिन क्या वास्तव में हम ग्रामीण बालाओं को पूर्ण साक्षर बना पाए हैं? आज भी अधिकांश ग्रामीण बालिकायें और महिलाएं अंगूठाछाप हैं, सच तो यह है कि ग्रामीण अंचलों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के जितने दावे किए जा रहे हैं, परिणाम उससे काफी कम प्राप्त हुए हैं। आज भी हम लक्ष्य से बहुत दूर हैं।

भारत में साक्षरता दर 74.04 है (2011), जो की 1947 में मात्र 18 % थी। भारत की साक्षरता दर विश्व की साक्षरता दर 84% से कम है।भारत की साक्षरता के मामले में पुरुष और महिलाओं में काफ़ी अंतर है जहां पुरुषों की साक्षरता दर 82.14 है वहीं महिलाओं में इसका प्रतिशत केवल 65.46 है। हालांकि आबादी के 50 सालों में महिला साक्षरता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है तो भी सच्चाई यह है कि हम उन्हें केवल साक्षर बना पाए हैं, शिक्षित नहीं। केवल अक्षर-ज्ञान होने से पढ़ाई नहीं हो जाती।

इस दृष्टि से देखा जाए, तो देश की अधिकांश लड़कियां प्राइमरी शिक्षा पूरी होने के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ देती हैं। । माध्यमिक स्तर पर लड़कियां लड़कों से काफी पीछे हैं। आगे की पढ़ाई में तो वे और अधिक पिछड़ जाती हैं। शहरों में रहने वाली लड़कियां भले ही स्कूल और कॉलेजों में जाकर पढ़-लिख लेती हों, ग्रामीण बालिकाएं तो आज भी शिक्षा से वंचित हैं। माता-पिता, अशिक्षित होने के कारण अपने बच्चों, विशेषकर लड़कियों को पढ़ाना जरूरी नहीं समझते।

अधिकांश परिवारों में केवल लड़कों को ही पढ़ाई के अवसर दिए जाते हैं। और लड़कियों को निरुत्साहित किया जाता है। हमारे समाज में स्त्री और पुरुष की शिक्षा के बारे में आज भी दोहरे मापदंड कायम हैं। लड़के को इसलिए पढ़ाया जाता है। कि आगे चलकर वह परिवार का सहारा बनेगा और लड़की को इसलिए नहीं पढ़ाया जाता है कि उसे पढ़ा-लिखाकर क्या करना है? तो उसे तो शादी करके पराए घर जाना है लेकिन हमें यह मनोवृत्ति छोड़नी होगी।

एक समिति के माध्यम से महिलाओं की शिक्षा के सम्बन्ध में जन-दृष्टिकोण का पता लगाने के लिए एक व्यापक सर्वेक्षण किया गया। इसके अनुसार केवल 17 प्रतिशत माता-पिता ही अपनी लड़कियों को शिक्षा दिए जाने के पक्ष में थे। अधिकांश अभिभावकों का मत था कि घर चलाने के लिए लड़की को ज्यादा पढ़ने की जरूरत ही क्या है। जीवन में लड़कियों का काम पहले ही निर्धारित हो जाता है। अच्छा खाना पकाना, सफाई और बच्चे पैदा करना ही उनकी भूमिका रह जाती है।

लड़कियों के पढ़ाई में पिछड़ने के अनेक कारण है, जिनमें सबसे प्रमुख कारण मानसिक और पारिवारिक उपेक्षा है। लड़कियों को पढ़ने का समय भी नहीं मिल पाता है क्योंकि अपनी माताओं के घर के बाहर जाने पर उन्हें घर सम्भालना पड़ता है। अनेक गरीब परिवार की लड़कियों को पढ़ने-लिखने की उम्र में कुछ काम-काज करना पड़ता है।

घर से नजदीक स्कूल न होना तथा आवागमन के साधनों और सुरक्षा का अभाव भी कुछ ऐसे कारण है, जिससे माता-पिता अपनी लड़कियों को घर के बाहर भेजना उचित नहीं समझते। लड़के तो अपने घर से दूर किसी स्कूल में जा सकते हैं, पर लड़कियों को पढ़ाने के लिए दूर के स्कूलों में भेजने पर विचार नहीं किया जाता। लड़कियों को लेकर माता-पिता सदैव भयभीत और चिन्तित रहते हैं। स्कूल आने-जाने का मार्ग यदि सुनसान है, तो चिंता और बढ़ जाती है।

लड़कियों पर शुरू से ही घरेलू कार्यों का बोझ इस कदर रहता है कि यदि उनका स्कूलों में दाखिला कराया भी जाता है, तो वह एक औपचारिकता मात्र होता है क्योंकि वे यदा-कदा ही स्कूल जा पाती हैं। अधिकांश समय उन्हें अपनी मां के कार्यों में हाथ बंटाना होता है।

पढ़ाई के लिए वांछित समय नहीं मिलने की वजह से यदि वे किसी साल अनुतीर्ण हो जाएं ते उनकी पढ़ाई छुड़ा दी जाती है। कि जहां स्कूल जाने के लिए लड़के को बस्ता दे दिया जाता है, वहीं लड़कियों को घर के कामों में मदद करने तथा छोटे भाई-बहनों की देख-रेख के लिए घर पर ही रहना होता है। निर्धन माता-पिता चाहकर भी अपनी लड़की को अच्छी तालीम नहीं दिला पाते। उनके सीमित साधन लड़कों की पढ़ाई के लिए ही कम पड़ते हैं।

यदि घर में एक या दो सन्तानें हो, तो फिर भी लड़कियों के पढ़ने-लिखने की सम्भावना रहती है लेकिन जहां संताने बेहिसाब हों, वहां लड़कियों की बात जाने दीजिए, सभी लड़के भी नहीं पढ़ पाते। माता-पिता सन्तान पैदा करते समय इस बात पर ध्यान नहीं देते कि जिसे वे जन्म दे रहे हैं, उसे पढ़ाने-लिखाने के लिए उनके पास कोई व्यवस्था है भी या नहीं? माता-पिता की गलती का परिणाम बेचारी लड़कियों को भुगतना पड़ता है।

बहुत से माता-पिता सहशिक्षा वाले स्कूलों-कॉलेजों में अपनी लड़कियों को भेजना पसन्द नहीं करते। अलग से लड़कियों का स्कूल न होना भी लड़कियों के आगे पढ़ने के अवसर समाप्त कर देता है। सामाजिक दबाव की वजह से कई जाति, समाजों में आज भी बाल-विवाह किए जाते हैं। वे बेटियों की शिक्षा की बजाय उनके ब्याह को अहमियत देते हैं। बाल-विवाह न भी हो, तब भी माता-पिता का अन्तिम उद्देश्य लड़कियों की शादी करना ही होता है और जैसे ही कोई योग्य वर मिलता है, वे बीच में ही पढ़ाई छुड़ाकर उसके हाथ पीले कर देते हैं।

लड़कियों में प्रतिभा की कमी नहीं होती। आवश्यकता इस प्रतिभा को विकसित करने की है। अनेक राज्यों में तो लड़कियों की स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक निःशुल्क व्यवस्था है। इसकेन अलावा सरकार तथा अनेक सामाजिक संस्थाएं गरीब तथा मेधावी छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्तियां भी प्रदान करती हैं। ताकि वे सुचारु रूप से अध्ययन कर सकें।

आज के प्रगतिशील युग में जबकि सीमित परिवार का महत्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, लड़के और लड़कियों में इस तरह के भेदभाव बरतना बेमानी है। लड़कियों को शिक्षित बनाने का मतलब है, परिवार को समाज को शिक्षित बनाना। भले ही आप उनसे नौकरी न कराएं, परन्तु उन्हें पढ़ाने में क्या हर्ज है? वैसे भी एक लड़की को सुशिक्षित करके आप दो परिवारों में सुशिक्षा की व्यवस्था करते हैं।

उन्हें सहशिक्षा या को एजुकेशन वाले कॉलेजों में दाखिला कराने में भी संकोच न करें ताकि जब वे कॉलेजों से पढ़-लिखकर बाहर निकलें तो पुरुषों के साथ काम करने में उन्हें किसी तरह की झिझक न हो। वैसे भी यदि लड़की दब्बू हुई तो अपनी रक्षा भी स्वयं नहीं कर पाएगी, लेकिन यदि वह तेज-तर्रार है, दुनियादारी से वाकिफ है, तो उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उसका आत्म-विश्वास ही इतना पुख्ता होगा कि वह मुसीबतों का सामना निडरता और बुद्धिमानी से कर सकेगी। किसी भी प्रतिकूल स्थिति में धैर्य खोकर हताश नहीं होगी।

कई माता-पिता अपनी लड़की को कहीं भी अकेली नहीं भेजते। यहां तक कि कॉलेज छोड़ने और लेने वाले उनका भाई जाता है अथवा वे स्वयं आते हैं। उनकी सहेलियों के यहां उसे नहीं भेजते। इस तरह लड़की हमेशा के लिए ही मन में अपने लड़की होने का भय विकसित कर लेती हैं। नारी के गुणों में संकोच, लज्जा और झिझक का होना अच्छा माना जाता है, लेकिन उसके ये गुण उसके विकास में बाधक नहीं बनने चाहिए।

शिक्षित लड़कियों में आत्म-विश्वास और स्वाभिमान की प्रबल भावना रहती है। अनपढ़ और कम पढ़-लिखी लड़कियों की बुद्धि और सामान्य ज्ञान बहुत मंद और सीमित रह जाते हैं तथा वे कुंठाओं (frustrations) से ग्रसित हो जाती हैं। पढ़ी-लिखी लड़कियों के विचार विस्तृत और आधुनिक होते हैं। लड़कियों में प्रतिभा की कमी नहीं होती। आवश्यकता इस प्रतिभा को विकसित करने की है। लड़कियों को इस बात की शिक्षा अवश्य देनी चाहिए कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। उसे दुनिया की ऊंच-नीच से अवगत भी कराएं।

इसके बाद उसे विकास के समुचित अवसर दें। पढ़ने-लिखने के लिए घर से बाहर या अन्य शहरों में भेजना पड़े तो भी हिचकियाएं नहीं, भेजें। अपनी बेटी पर विश्वास रखिए। शंकाएं मत पालिए। यदि उसे कुछ करना ही होगा तो घर बैठे भी कर लेगी और नहीं करना होगा तो घर से सैकड़ों मील दूर से भी अपना दामन साफ बचाकर ले आएगी। इसलिए निश्चित होकर उसे पढ़ने-लिखने अथवा नौकरी के लिए बाहर भेजें।

केवल लड़की को इसलिए आगे बढ़ने के लिए अवसर नहीं देना कि वह एक लड़की है, ठीक नहीं है। उसे आत्म-विश्वासी बनाएं। वह लड़कों से भी अच्छी सफलता प्राप्त कर सकती है। बेटी को किसी भी स्तर पर बेटे से छोटा सा हीन न समझें।

Leave a Comment