2 Best Vasant Ritu Essay in Hindi | वसंत ऋतू पर निबंध

ऋतुओं का राजा: वसंत

हैल्लो दोस्तों कैसे है आप सब आपका बहुत स्वागत है इस ब्लॉग पर। हमने इस आर्टिकल में Vasant Ritu in Hindi पर 2 निबंध लिखे है जो कक्षा 5 से लेकर Higher Level के बच्चो के लिए लाभदायी होगा। आप इस ब्लॉग पर लिखे गए Essay को अपने Exams या परीक्षा में लिख सकते हैं

Vasant Ritu Essay in Hindi (450 Words)

भूमिका

शिशिर ऋतू आयी, पथिकों के प्राण संकट में पड़े। ‘शिशिर’ संज्ञा की सार्थकता भी इसी में है कि जिसमें शैत्य के कारण पथिकों को शश अर्थात् खरगोश की तरह भागना पड़े। माघ और फाल्गुन वाली इस ऋतु में अतिशीत के कारण अपार कष्ट था। कहा गया है न, ‘अति सर्वत्र वर्जयेत् !’ हमारी प्रकृतिरानी ने इसीलिए माघ-श्रीपंचमी को ऋतुराज वसन्त के पास निमंत्रण भेजा।

माघ-श्रीपंचमी को वसन्तपंचमी कहने का यही रहस्य है। ऋतुराज ने अपने आगमन की स्वीकृति दे दी। फिर क्या था ! जन-जन में आनन्द की बाँसुरी बज उठी। जनता ने अपने वसन्त महाराज के स्वागत में आम्र-पल्लव के बन्दनवार लटकाये और फालान पूर्णिमा के दिन उल्लास में रंग-अबीर से दिग्दिगन्त को रंगीन कर दिया। जनता के स्वागत से ऋतुराज सचमुच बड़ा प्रसन्न हुआ और एक-दो दिन की बात कौन कहे, पूरे दो महीने-चैत और वैशाखभर के लिए उसने पड़ाव डाल दिया। शीर्णा शिशिर गयी और जग पड़ी मधुमास ऋतु-‘मैं शिशिर शीर्णा चली, अब जाग तू मधुमास आली !’

सौंदर्य

अब क्या था? जहाँ राजा ही हो, वहीं राजधानी उतर आयी-‘तहँइ अवध जहँ राम निवासू ।’ प्रकृति रानी रंग-बिरंगे परिधानों से अपने राजा को आकृष्ट करने लगी, अनगिन हाव-भावों से मन मोहने लगी। और, फिर क्या था ! इस मदन-सखा की रास के लिए मदनोत्सव मनाया जाने लगा; क्योंकि वह सौन्दर्य-देवता कामदेव का सबसे बड़ा सहायक है। जिस उर्वशी के अपरूप रूप-निर्माण में वेद पढ़-पढ़कर पथराये खूसट वृद्ध ब्रह्मा असफल रहे, उसके निर्माण में कुसुमाकर वसंत सफल हो सका। यही कारण है कि कवियों ने इस ऋतुराज के स्वागत में अपने हृदय उन्मुक्त कर दिये और असंख्य कविताएँ लिखीं। कविवर दिनकर की ये पंक्तियाँ देखें

हाँ! वसन्त की सरस घड़ी है, जी करता मैं भी कुछ गाऊँ,
कवि हूँ, आज प्रकृति-पूजन में निज कविता के दीप जलाऊँ।
उफ ! वसन्त या मदनबाण है? वन-वन रूप-ज्वार आया है;
सिहर रही वसुधा रह-रहकर, यौवन में उभार आया है।
कसक रही सुन्दरी, ‘आज मधु-ऋतु में मेरे कन्त कहाँ?’
दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती, ‘प्यारी और वसन्त कहाँ ?

वसन्त का नाम ‘पुष्प-समय’ है, अर्थात् इसमें रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं। इसे ‘माधव’ कहते हैं, यानी यह मधुवाला है। अर्थात्, सर्वत्र मिठास-ही-मिठास भरी रहती है। वसुन्धरा इसी ऋतु में धनधान्य से परिपूर्ण होकर अपनी सार्थकता सिद्ध करती है और सब अन्नपूर्णा धरती की गोद में इन्द्रपुरी का सुख लूटते हैं।

उपसंहार

अब हम शिशिर के शर से विद्ध नहीं होते, Basant की मादक सुरभि से प्रफुल्लित होते हैं। वस्तुतः, वसन्तऋतु में प्रकृति एक चिरन्तन रहस्य का उद्घाटन करती है कि यदि हम शिशिर में कष्ट-सहन का साहस रख सकें, तो फिर हमारे जीवन में वसन्त अवश्य उतरेगा, यदि हम पतझड की उदासी बर्दाश्त कर सकें. तो वसन्त की रंगीनी का मजा जरूर लूटेंगे।

यहि आसा अटक्यो रहयो, अलि गुलाब के मूल।
ह्हें बहरि वसन्त ऋत, इन डारिन वे फल। बिहारीलाल

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Vasant Ritu Essay in Hindi (750 Words)

प्रारंभ

जिसके आगमन का समाचार सुनते ही मन-प्राणों की क्यारी-क्यारी लहलहा उठती है, अंतरआत्मा की डाली-डाली मुस्कुरा उठती है- वह है ऋतुओ का राजा Vasant Ritu। ऋतुराज का आविर्भाव होते ही सर्वत्र स्वर्गिक माधुरी का प्याला छलकता दीखता है; वातावरण दुग्धधवल हास्य के झोके से अनुगुंजित होता दीखता है। उदास-निराश पहाड़ियां का सुहाग जग उठता है और वे लाल चूनर पहने नई-नवेली दलहनों-सी सजी दीखती है।

वृक्ष अपने तन से पुराने पत्तों के जीर्ण वस्त्र को त्यागकर, नवीन कोंपलों का परिधान धारण कर, नवजीवन की अगड़ाइयाँ लेते दीखते हैं। गुलाब-फल में अटकानेवाले भौरे नई खिली कलियों का आमंत्रण पाकर गुनगुनाना आरंभ करते हैं। न तो तनं को विद्युत-तरंग मारनेवाला शीत है और न नागिन की तरह जिहाए खोलनेवाली लू की लपटों की आशंका ही।

एक हलका गुलाबी जाड़ा-तन-मन में गजब स्फूर्ति भरनेवाला ! न तो शीत-निशिचर के कठोर स्पर्श का उत्पीड़न है और न ग्रीष्म-दैत्य का उत्तप्त अत्याचार। अब यामिनी प्रमोदिनी हो गई है, उषा मधुरहासिनी। पादप-पत्रों के आनत अधरों का सोया संगीत जग उठता है। पारे-सी पारदर्शी नदियाँ मोटापा दूर होने के कारण जैसे किसी की आगमनी से नाचने लगती हैं और तब लगता है-वसंत सचमुच वसंत है, जिसमें आनंद, केवल आनंद का ही वास है। इसीलिए तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से अपने को ‘ऋतूनां कुसुमाकरः’ (ऋतुओं में मैं वसंत हूँ) कहकर इसकी महत्ता सिद्ध की थी।

दृश्य

Vasant Ritu के आते ही प्रकृति रानी नई वेशभूषा, नई विच्छित्ति में उपस्थित होती हैं। उसके परिधान में रंग-बिरंगे फूल टँके होते हैं। उसके स्वागत के लिए अलिकुल वाद्यवादन करते दौड़ पड़ते हैं, शिखिसमूह नर्तन करते दीख पड़ते हैं। चंपा उसके मस्तक पर छत्र धारण करता है। आम्रमंजरियाँ उसके मुकुट हैं।

पक्षिसमूह उसका अभिषेक-मंत्र पढ़ता है। पुष्पराग उड़कर चंदोबा-सा टॅग जाता है। मलयपवन उसके ऊपर पंखा झलता है। कुंदतरु निशान धारण करते हैं। पाटल के पत्ते ही उसके तरकस हैं, अशोक के पत्ते ही बाण। पलाश के पुष्प उसके धनुष हैं, लवंगलता उसकी प्रत्यंचा। मधुमक्षिकाओं की विशाल सेना सजाकर राजा वसंत ने जैसे शिशिर की पूरी सेना को परास्त कर दिया है।

खेतों में दूर-दूर तक गेहूँ के गोरे गालों पर रूपसी तितलियाँ बल खा रही हैं-तीसी के मरकती तथा सरसों के पुखराजी फूलों पर भ्रमरों की पंक्तियाँ मँडराती हैं। मालतीलताओं को मतवाले भौरे चूम रहे हैं और उनकी कोमल कलियाँ मंद-मंद पवन के हिंडोले पर झूल रही हैं। कहीं सुग्गे की चोंच के समान टेसू के फूल खिले हैं, तो कहीं हल्दी के रंग के कनेर के फूल। रूई के फाहे की तरह कुंद-कलियाँ, आम्रमंजरियों से इत्र को मात करनेवाली भीनी-भीनी महक, दिलफरेब चाँदनी, मस्तानी काकली, गंधमाती हवा, उन्मादक गुंजार – कष्टभरे जीवन के लिए अनोखे रसायन हैं।

ऐसी मनमोहक ऋतु में गौतम बुद्ध का कथन ‘सर्वं दुःखं दुःखम्, सर्वं क्षणिक क्षणिकम्’ मिथ्यावचन प्रतीत होता है। लगता है, जीवन में केवल आनंद का ही पारावार लहरा रहा है, सम्मोहन का साम्राज्य और अनुराग का ऐश्वर्य ही पग-पग पर लुट रहा है, उन्मुक्त यौवन की रसवंती धारा कूल-किनारा तोड़ रही है, उच्छल उत्साह की सरिता उमड़ चली है। सचमुच वासंती सुषमा की एक बाँकी चितवन पर लाख-लाख स्वर्गिक सुख न्योछावर हैं।

यही कारण है कि संसार के प्रसिद्ध कवियों ने इसी Vasant Ritu को सर्वाधिक पसंद किया और अक्षरबद्ध कर अक्षर बना दिया, श्लोकबद्ध कर पुण्यश्लोक कर दिया। महाकवियों ने आत्मा-परमात्मा या नायक-नायिकाओं का प्रेम-मिलन कराया, तो इसी हृदयावर्जक ऋतु में। जयदेव ने राधा-कृष्ण का मिलन इसी ऋतु में कराया, तो गोस्वामी तुलसीदास ने राम-सीता का मिलन उस जनक की पुष्पवाटिका में कराया, जहाँ वसंत ऋतु लुभाकर रह गई थी।

त्रिपुरासुर के विनाश के लिए जब कामदेव ने योगिराज शंकर की समाधि भंग करनी चाही थी, तब उसे वसंत की सहायता लेनी पड़ी थी। क्या वाल्मीकि, क्या कालिदास, क्या सूरदास, क्या तुलसीदास, क्या पंत, क्या विद्यापति, क्या रवींद्रनाथ ठाकुर, क्या सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ सभी ने वसंत पर कविताए लिखी हैं। अंगरेजी के महान कवियों में शेक्सपियर, मिल्टन, टेनीसन, ब्राउनिग, थॉमसन-सबने वसंत का गुणगान अपनी कविताओं में किया है।

उपसंहार

Vasant Ritu प्रतीक है आनंद का, उल्लास का, रूप और सौंदर्य का, मौज और मस्ती का, जवानी और रवानी का, स्फूर्ति और संचेतना का; किंतु क्या पृथ्वी के मन में इस संजीवन वसंत में भी आनंद और उल्लास का स्रोतस्विनी उमड़ पड़ती है? कदापि नहीं। तभी हमें डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के वैयत्तिक निबंध ‘वसंत आ गया’ की पंक्ति याद हो आती है, “Vasant Ritu आता नहीं ले आया जाता है।

यदि हम भी रूढ़ियों, अधविश्वासों, कुसंस्कारों के जीर्ण-शीर्ण पत्रों को त्यागकर नवीनता और प्रगतिशीलता के नूतन किसलयों से अपना श्रंगार कर सकें, तो सचमुच Vasant Ritu हमारे जीवन में वर्ष में केवल एक बार ही नहीं, वरन बार-बार लहराता रहेगा, इसमें संदेह नहीं।


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