1 Best Essay on Subhash Chandra Bose in Hindi | सुभाष चन्द्र बोस पर निबंध

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महान व्यक्तित्व सुभाष चन्द्र बोस – About Subhash Chandra Bose in Hindi

प्रस्तावना

जिस व्यक्तित्व के बारे में कितना कुछ लिखा और कहा जा चुका है, फिर भी ऐसा लगता है कि वह अधूरा है, अपूर्ण है। उनके बारे में पढ़ने से पुस्तकों में मिलता है कि वह भारत माता के सपूत, मंजिल के राही ने अपने सोच के अनुसार क्रान्ति के रंग भरे थे। ऐसे महान् विभूति के नाम के उच्चारण मात्र से एक रोमांच, एक श्रद्धा की भावना मस्तिष्क में स्वाभाविक उमड़ पड़ती है अन्याय के विरूद्ध क्रान्ति, मंजिल की तड़प का नाम सुभाष था। जिसमें देश के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की भावना थी।

उन्होंने राष्ट्रीय स्वत्व का चिन्तन गहराई से किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीयत्व के अभाव से भारतीय विघटित, अनुशासनहीन, स्वार्थी और राष्ट्रीयता से विमुख हो गए। यही कारण रहा कि विदेशियों के आक्रमण करने पर मैदान खाली मिला। ऐसा न होता तो सात समुद्र पार से मुट्ठी भर अंग्रेज आकर सारे देश को अपनी मुट्ठी में दबा लेता। अपने देश के प्रति अपार ममत्व, परतन्त्रता की वेदना और स्वतन्त्रता की छटपटाहट उनके हृदय में थी। आज भी ऐसे ही व्यक्तित्व की देश अपेक्षा कर रहा है।

देश के स्वतन्त्रता के प्रति विचार

नेताजी Subhash Chandra Bose पराधीनता को मानव-जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप मानते थे। वे देश की गुलामी से अति दुखी थे। वे कहा करते थे-स्वतन्त्रता के बिना कोई भी राष्ट्र जीवित नहीं रह सकता। जब तक हमारा राष्ट्र परतन्त्र है तब तक हम मनुष्य मुर्दे के समान हैं। स्वतन्त्र एक ऐसी भावना है कि वह जितनी मीठी है उतनी ही महँगी भी है। उसे प्राप्त करने के लिए हमें भारी मूल्य चुकाना होगा। यह मूल्य चुकाने की सामर्थ्य जब हमारे पास होगी, तभी हमें स्वतन्त्रता प्राप्त करने का अधिकार मिल सकेगा। उसके लिए हमें स्वयं की, धन की, शक्ति की, पुरुषार्थ की आहुति देनी पड़ेगी।

इसके लिए हमें सामर्थ्यवान् होना पड़ेगा क्योंकि यहाँ शक्ति की पूजा होती है। भारत माता की सेवा के बदले में जो स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है वह देश भक्त नहीं, वह देश-भक्ति का सौदागर है। उनका विचार था कि आजादी वर्ष छह-मास कार्य करके प्राप्त नहीं की जा सकती अपितु वर्षों लगातार धैर्य से काम करने से, संघर्ष करने से ही मिल सकती है। मौसमी देश भक्ति जब तक त्याग दी नहीं जाती और देश के लिए प्राणों को न्यौछावर करने का उत्साह नहीं होता तब-तक आजादी की प्राप्ति के लिए जीने का व्रत नहीं लिया जा सकता है।

इसलिए उन्होंने आह्वान किया था कि “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” उस समय राष्ट्र के अन्दर स्वाभिमान और स्वतन्त्रता की आकांक्षा जगाने के लिए श्री तिलक जैसा महान नेता वन्देमातरम् का मन्त्र फूंक रहे थे, न्यायमूर्ति गोविन्द रानाडे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की हिमायत कर रहे थे।

स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ टैगोर सांस्कतिक चेतना का मन्त्र फूंक रहे थे तो दूसरी ओर भारत-माता के वीर सपूतों का रक्त बहाने वाले अंग्रेजों से जबाव मांगने में राष्ट्रीय नेता झिझक रहे थे। किन्तु राख के अन्दर दबी चिंगारी कब तक न सुलगती। सुभाष ने अंग्रेजों की चुनौती को स्वीकारा। ताल ठोंकी, जिसकी आहट-मात्र से अंग्रेजों के हाथ कॉपे, स्वर्ण-पात्रों से शराब छलक गई, बिखर गई, अंग्रेजों का प्रभा-मण्डल निस्तेज हो गया।

आजाद हिन्द फौज की कल्पना और निर्माण

आगे चलकर Netaji Subhash Chandra Bose ने राष्ट्रीय-स्वयं-सेवक संस्थापक डा० हेडगेवार से प्रेरित होकर आजाद हिन्द फौज के निर्माण की परिकल्पना संजोई और उसका निर्माण किया हिन्दुकुश से कन्याकुमारी तक, आसेतु-हिमालय तक देश को संगठन सूत्र में बांधकर स्वतन्त्र भारत की कल्पना को लेकर रूप देने के लिए जीवन की बाजी देने चल पड़े। इस तरह हिन्दुस्तान में देश के प्रभुता-पूर्ण अस्तित्व को राष्ट्र के जीवनका प्रश्न माना और चल दिए अपनी मंजिल की ओर।।

जेल में बन्द Subhash Chandra Bose और प्रेरणा

जिस जेल में सुभाष बन्दी रहे, उसी जेल में गंगाधर राव तिलक छह वर्ष तक बन्द रहे। वह जेल की विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए जिस जेल में बन्द रहे उस जेल में उनकी कोठरी में धूप के थपेड़े, सर्दी, वर्षा से बचने की कोई सुविधा नहीं थी, सीलन भरे कोठरे में मधुमेह से पीड़ित होते हुए बिना आह भरे जो अपूर्ण अमृत ग्रन्थ दिया उससे प्रभावित और आहत हुए बिना सुभाष जी न रह सके। यह अमृत ग्रन्थ “हिन्दू राष्ट्रवाद” उनकी प्रेरणा बन गया। यही राष्ट्रवाद भारत का स्वत्व है। यही उनके चिन्तन का आधार बन गया।

उनके मुख से फूट निकला किसी को हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता पसन्द न हो तो स्वराज्य मिला, न मिला। अपनों की सत्ता रही या फिर परायों की रही, दोनों बराबर हैं। उनके अनुसार भारतीय संस्कृति हिन्दुस्तान की प्राण है। अंग्रेजी संस्कृति, सभ्यता भारतीय संस्कृति और सभ्यता का पर्याय नहीं बन सकती है। हम तभी तक भारतीय हैं जब तक हमारी भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण है।

यदि हमारे जीवन मूल्य बदलेंगे तो हमारा जीवन दर्शन और संस्कृति बदल जाएगी और राष्ट्र की परिकल्पना ही बदल जाएगी। इन स्वतन्त्रता के संन्यासी की मृत्यु के बारे में अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं हो सका है। आजाद-हिन्द फौज के नायक Netaji Subhash Chandra Bose के बारे में कहा जाता है सन् 1942 ई० में जर्मन से आते हुए जहाज को डूबे जाने से मृत्यु हो गई है, किन्तु इसे पुष्ट समाचार नहीं माना जाता है। समाचार-पत्रो में कई बार किवदन्तियाँ पढ़ने में आती रहीं कि नेताजी 1984 तक जीवित रहे हैं। इन बातों से मन में सदैव प्रश्न कौंधता रहा कि यदि वे जीवित थे तो अब तक प्रकट न होने के क्या कारण हो सकते थे? कुछ भी हो।

आज उनको याद किया जाता है और करते रहेंगे। 23 जनवरी को उनके दिवस पर गणतन्त्र दिवस 26 जनवरी का पूर्व-अभ्यास किया जाता है, और सम्पूर्ण राष्ट्र उनको स्मरण कर नमन करता है। इस दिन ‘दिल्ली चलो‘ और “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा” को दोहरा कर उनके प्रति सम्मान में श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है। यह दिवस भारत-सरकार को स्मरण कराता है कि स्वतन्त्रता का सन्यासी भारत-माता के वीर सपूत के बारे में यथार्थ की जानकारी के लिए पहल करें।

उपसंहार

इस महान नायक नेताजी के बारे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि हमारे इतिहास में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ के जो एक साथ महान सेनापति, वीरसैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी, समाजसेवी, प्रखरवक्ता, प्रकृति से साधु आर से देश-भक्त रहा हो। वह एक ऐसा व्यक्तित्व था जिसका मार्ग कभी निहित स्वार्थ रोक नहीं सके। जिसके पैर लक्ष्य की ओर से कभी पीछे नहीं हटे। उन्होंने जो स्वप्न देखा उसे साधा। जिनका समुद्र सा गाम्भीर्य, पृथ्वी सा में आत्मीय स्नेह दिखाई देता था। ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व को स्मरण कर आँखें स्वयं ही छलक आता हैं।


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