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दादी माँ पर निबंध | Essay on Grandmother in Hindi | Grandmother Essay in Hindi
आधी शताब्दी से भी अधिक समय से उनका हमारे परिवार पर एकछत्र शासन रहा है। आज जबकि वे अस्सी के आस-पास आ पहुँची हैं, उनके झुर्रियोंदार चेहरे में भी उनके यौवनकाल का सुंदर लावण्यमय मुख और उनकी प्रौढ़ावस्था की गरिमामयी रोबीली छवि साफ-साफ दिखाई पड़ती है।
उनकी आँखों की ज्योति और दाँतों की प्रखरता ने एक लम्बे समय तक जीवन की वास्तविकताओं का दृढ़ता से मुकाबला किया; किन्तु अब वे आँखें थकी-थकी-सी दिखाई देती हैं और उनके कठोर-तीक्ष्ण दाँत मानो अपनी पराजय स्वीकार कर चुके हैं; पर उनकी जिह्वा ने अभी पराजय स्वीकार नहीं की। लगता है जैसे समस्त इंद्रियों की शक्ति और सामर्थ्य संगठित होकर उनकी जीभ में आ गई हो।
पिता जी लाख रोकते रहें, पड़ोसी बार-बार विनम्रता से उन्हीं की बात स्वीकार लेने का दम भरते रहें, शाक-सब्जी और फल आदि बेचने वाले सैकड़ों बार ‘दादी जी, सुनिए तो सही’ अथवा ‘माता जी, हमारी भी तो सुनिए’ की गुहार मचाते रहें, पर हमारी दादी जी एक अजेय योद्धा की तरह अपने वाक् बाण छोड़ती रहती हैं- भले ही प्रतिपक्षी ने बहुत पहले ही ‘त्राहिमाम्, त्राहिमाम्’ करते हुए हथियार डाल दिए हो।
दादी जी प्रायः बरामदे में अपनी चिर परिचित कुर्सी पर अथवा दीवार से लगे दीवान पर बैठी अथवा लेटी दिखाई देती हैं। कोई भी घर में आया अथवा किसी के आने की आहट हुई कि वे उठ बैठती हैं और अपनी कड़ाकेदार आवाज़ में पूछती हैं-कौन? कौन है रे?? दादी जी को नमस्कार किए बिना सहज ही भीतर जा पाना कठिन है। घर के सदस्य उनसे डरते नहीं हैं, डरने का अभिनय सा करते हैं। अकसर तो वे दादी जी को उत्तेजित कर उनके क्रोध से आनंद ही लेते हैं।
हमारी दादी ने जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव देखें हैं; उन्होंने कठिन अर्थिक परिस्थितियों के साथ हमारे दादा जी के साथ मिलकर घोर संघर्ष किया है। उन्होंने अपनी संतान को जीवन के श्रेष्ठ मूल्य देने की चेष्टा की है। ईमानदारी, परिश्रम और बड़े-छोटे का विचार उनके जीवन के तीन मूलमंत्र रहे, जिन्हें उन्होंने बड़ी निष्ठा के साथ अपने पुत्र-पुत्रियों को ही नहीं, हम पौत्र-पौत्रियों को भी देने की चेष्टा की है।
अपने उत्तम स्वास्थ्य पर गर्व करती हुई हमारी दादी प्रायः ही कहती हैं कि यह शरीर कुछ यों ही अस्सी वर्ष के आँधी-तूफानों के बीच खड़े नहीं रहा, बल्कि कठिन परिश्रम, लगन और परोपकार के सुख के कारण ही यह अभी तक सब-कुछ झेल रहा है।
हमारी दादी ऊपर से वज्र की तरह कठोर दिखाई देती हैं, पर उनका हृदय तो मोम है। किसी के गरम-गरम दो-चार आ ही उनको गला देते हैं और उनकी आँखों में न केवल आतूं झाँकने लगते हैं, उनका गला भी भारी हो जाता है और वह यथाशक्ति हर जरूरतमंद अथवा दुखी की सहायता करती हैं।
कदाचित हमारे परिवार की सम्पन्नता, सुख और प्रगति हमारी दादी के पुण्य कर्मों का ही परिणाम है। परमात्मा हमारी दादी को शतायु करे।
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