Full 100 Kaurava and Pandava Story | कौरव और पांडव की कहानी

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अध्याय 2 Full Dhritarashtra and Pandu Story | धृतराष्ट्र और पांडव की कहानी


Kaurava and Pandava Story | कौरव और पांडव की कहानी

कौरवों और पांडवों की शिक्षा

गुरु कृपाचार्य की देख-रेख में पांडव और कौरव शिक्षा प्राप्त करने लगे । पांडव पढ़ने में भी बहुत होशियार थे। कौरवों की बुद्धि तो जैसे पढ़ाई में लगती ही नहीं थीं। यही कारण था कि वे पांडवों को पढ़ते देखकर जलते थे। हर समय उनकी बुराई में लगे रहते।

एक बार पांचों पांडव जंगल में खेल रहे थे कि उनकी बॉल कुंए में जा गिरी पांचों भाई चिंतित से कुएं के अन्दर झांक रहे थे और सोच रहे थे कि यह बॉल बाहर कैसे निकाली जाये। किन्तु उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। बॉल को छोड़कर इसलिए नहीं जा सकते थे कि उनके पास दूसरी बॉल नहीं थी।

पांचों पांडवों को उदास बैठे देखकर एक राह चलते ब्राह्मण ने उनसे पूछा

बेटे! तुम लोग इतने उदास क्यों बैठे हो ?

पंडितजी हम बहुत दुःखी हैं-हमारी मदद करने वाला कोई नहीं।

बेटे जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है। इसलिए तुम अपने दुःख का कारण बताओ, हो सकता है भगवान ने मुझे आप ही की सहायता के लिए भेजा हो।

पण्डितजी हमारी बॉल उस कुंए में गिर गई है । किसी तरीके से इसे बाहर निकाल दीजिए तब हमारी इज्जत बच जायेगी।

इतनी-सी बात पर तुम लोग चिंतित होने लगे । चलो हम ‘तुम्हारी बॉल निकाल देते हैं ।

पंडित जी क्या आप कुंए में कूदेंगे? न न… न आप ऐसा पाप मत कीजिए । यह पाप तो हमारे सिर पर लगेगा ।

बेटे इस संसार में बुद्धि बड़ा है या पहाड़ ? इन दोनों में से बुद्धि ही बड़ी है। यह कहकर उस ब्राह्मण ने अपने धनुष को कंधे से उतारकर एक तीर चलाकर बॉल के ऊपर मारा । फिर दूसरा तीर उस बॉल पर इस प्रकार बार-बार उन्होंने तीर पर तीन मारने आरम्भ कर दिए जिसके फलस्वरूप आखिरी तीर से उस बॉल को बाहर निकाल लिया गया।

वाह… वाह… वाह पण्डित जी आप महान है, वास्तव में ही बुद्धि पहाड़ों से भी बड़ी होती है । खुशी से नाचते हुए पांचों भाई भीष्मजी के पास पहुंचे और उन्होंने राह चलते ब्राह्मण के बुद्धि की बात बताई।

बेटों ऐसा शस्त्र विद्या का ज्ञाता ब्राह्मण तुम्हें कहा मिलेगा जाओ इसी समय उसे मेरे पास लेकर आओ। हम कौरव पांडवों की शस्त्र विद्या सिखाने के लिए उसे ही रखेंगे।

यह ब्राह्मण और कोई नहीं था-महाभारत का सबसे गुणवान पात्र द्रोणाचार्य थे। उस दिन से भीष्म जी ने उन्हें कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या सिखाने के लिए नियुक्त कर दिया। शहर से दूर जंगल में जाकर द्रोणाचार्य ने अपना बहुत बड़ा आश्रम बना लिया।

इस आश्रम में कौरव और पांडव दोनों ही एक साथ रहकर शस्त्र विद्या सीखने लगे । गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन से बहुत प्यार करते थे हर समय उनके मुंह पर अर्जुन का ही नाम होता । जिसे सुनकर कौरव जलते थे, किन्तु पांडवों को उनसे जलन नहीं थी।


परीक्षा

गुरु द्रोणाचार्य ने अपने सारे शिष्यों को शस्त्र विद्या सिखाने के पश्चात् उनकी परीक्षा के लिए एक कपड़े की चिड़ियां रख दी उन सबसे कहा कि इस चिड़ियां की आंख में लक्ष्य भेद करना है । सारे राजकुमार अपने-अपने धनुष बाण लेकर तैयार खड़े थे। सबसे पहले गुरुदेव ने युधिष्ठिर को अपने पास बुलाया जैसे ही वे निशाना लगाने लगे तो द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से पूछा

युधिष्ठिर-तुम्हें इस समय क्या नजर आ रहा है ?

गुरुदेव इस समय मैं डाल पर रखी हुई चिड़ियां को देख रहा हूं और उसके पास ही आप बैठे नजर आ रहे हैं।

युधिष्ठिर! अब तुम एक ओर खड़े हो जाओ । गुरुदेव ने उन्हें कहा ।

इस तरह बारी-बारी सारे शिष्यों को गुरु द्रोणाचार्य अपने पास बुलाने लगे । परन्तु किसी से ठीक उत्तर न पाकर, उन्हें एक ओर खड़ा कर देते ।

आखिर अर्जुन का नम्बर आया तो उससे भी यही प्रश्न पूछा गया । .

गुरुजी मुझे तो चिड़ियां की आंख दिखाई दे रही है। यह सुनकर अर्जुन ने अपना तीर चला दिया-जो सीधा चिड़िया की आंख में जा लगा ।

वाह… वाह… वाह के अर्जुन केवल तुम ही इन सबमें महान हो। सब परीक्षा में फेल हुए केवल तुम ही पास हुए हो इतना कहते हुए द्रोणाचार्य ने अर्जुन को अपने सीने से लगा लिया और उसे आशीर्वाद दिया ।


शस्त्र संचालन का प्रदर्शन

गुरुजी के मुंह के अर्जुन की इतनी प्रशंसा सुनकर कौरव और बुरी तरह जल गए । दुर्योधन तो विशेष रुप से उन्हें घूरकर देख रहा था।

राजकुमारों ने अस्त्र-शस्त्र विद्या प्राप्त कर ली। वे युद्ध के ब्यूह रचना के बारे में बहुत कुछ जान गए तो द्रोणाचार्य ने भीषण जी से कहा कि यदि वे चाहें तो सारे राजकुमारों के शस्त्र संचालन के प्रदर्शन को देख सकते हैं।

भीष्म जी उसी समय राजकुमारों के शस्त्र प्रदर्शन की घोषणा सारे शहर में करवा दी । प्रजा में बहुत बड़ा उत्साह था, कि वे राजकुमारों को युद्ध नीति को देखना चाहते थे। इसलिए सारी प्रजा उस दिन इकट्ठी हुई निश्चित तिथि पर सारे राजकुमार अपने-अपने शस्त्रों के साथ मंच पर आने लगे सब बारी-बारी गुरु द्रोणाचार्य के चरण छूने लगे।

फिर सारे राजकुमार अपनी-अपनी बारी से शस्त्र विद्या के कमाल दिखाने लगे । जब छोटे भाई निपट चुके तो भीम और दुर्योधन के युद्ध का नम्बर आया तो दुर्योधन तो पहले से ही पांडवों से जलता था, वह तो केवल इस मौके के ताक में रहता था, कब पांडवों को नीचा दिखाया जा सके।

यही कारण था कि दुर्योधन और भीष्म में यह परीक्षा युद्ध भारी पड़ने लगा उसके क्रोध का तो यह हाल था कि भीम ने अपना गदा दुर्योधन के सिर पर मारने के लिए उठाया तो उसी समय गुरुदेव ने उसे ऐसा करने से मना किया फिर दोनों से कहा कि तुम अपने-अपने स्थानों पर जाकर बैठ जाओ। गुरु का कहना मानकर वे दोनों अपने स्थान पर जाकर बैठ गए।


महावीर कर्ण के आगमन की कहानी

अर्जुन की प्रशंसा सारे मंच पर हो रही थी। सब लोगों का जुबान पर यही शब्द थे कि अर्जुन जैसा निशानेबाज वीर इस पृथ्वी पर नहीं है । अर्जुन की यह प्रशंसा सुनकर कर्ण आगे आए और बोले’

देखो गुरुदेव! आप अर्जुन को बहुत मानते हैं ना।

हां कर्ण-जो चीज सत्य है उसपर संदेह कैसा?

संदेह नहीं मैं सत्य करके दिखाना चाहता हूं मैं अर्जुन से युद्ध करके यह बताना चाहता हूं कि इस स्थान पर भी आदमी बसते हैं जो अर्जुन से तो क्या संसार के बड़े वीर से टक्कर ले सकते हैं।

दुर्योधन को तो यही बात पसन्द थी कि पांडवों को नीचा दिखाने वाला कोई पैदा हो उसने झट से उठकर कहा-हां.. हां ठीक है कर्ण और अर्जुन में यह मुकाबला हो ही जाए।

मैं किसी भी मुकावले से नहीं डरता । यदि कर्ण को अपनी शक्ति पर इतना अभिमान है तो मैं इसे अभी देख लेना चाहूंगा अर्जुन भी क्रोध से भरा अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ।

कर्ण तो पहले से ही इस समय की प्रतीक्षा कर रहा था।

दोनों की आंखों में खुन उतर आया था। ऐसा प्रतीत हो रहा था । यह दोनों एक-दूसरे के खून से प्यासे हो रहे हैं । कुछ ही देर में इन दोनों में से एक अवश्य ही मरा हुआ मिलेगा।

उसी समय भीष्म पितामह उठ खड़े हुए और उन्होंने कहा-देखो वीर अब सूर्यास्त होने जा रहा है । इसलिए युद्ध का समय बीत चुका है तुम फिर कभी अपनी शक्ति का परक्षिण कर लेना ।

भीष्म जी का कहना मानकर दोनों वीर अपने-अपने स्थानों पर चले गए । एक बहुत बड़ा युद्ध भीष्मजी की बुद्धिमत्ता से टल गया था ।


गुरु द्रोणाचार्य की दया |

गुरु द्रोण और राजा द्रुपद में वर्षों पुरानी शत्रुता चली आ रही थी। क्योंकि जब राजा द्रपद और द्रोण सहपाठी थे तो राजा द्रुपद ने उनसे वादा किया था कि जब मैं राजगद्दी एर बैलूंगा तो तुम्हें आधा राज्य दे दूंगा । किन्तु एक दिन द्रोण बहुत दुःखी होकर अपनी गरीबी से तंग आए हुए सहायता पाने के लिए द्रुपद के पास पहुंचे तो राजा पहचानने से ही इन्कार कर दिया ।

इसी क्रोध के कारण ही द्रोण ने द्रुपद से बदला लेने की बात सोची उन्होंने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए उनसे कहा कि तुममें से ऐसा कौन है जो राजा द्रपद के देश पर आक्रमण करके उसे पकड़ कर हमारे पास ले आए।

कौरव इस मामले में बड़े चतुर थे । उनमें से कोई कुछ न बोला क्योंकि वे जानते थे यदि चुप रहेंगे तो पांडव अवश्य इस काम के लिए तैयार हो जायेंगे । हुआ भी यही, पांडवों ने गुरुदेव के पैर छूकर कहा

गुरुजी-यदि आप हम पांडवों को आशीर्वाद दें तो हम अवश्य ही राजा द्रपद को बन्दे बनाकर चरणों में डाल देंगे।

जाओ अर्जुन जाओ बस एक बार उस स्वार्थी और झूठे आदमी को बन्दी बनाकर हमारे हवाले कर दो।

ऐसा ही होगा गुरुदेव! यह सुनकर पांडव वहां से पांचाल देश की ओर चल पड़े।

राजा दुपद ने पांडवों के साथ पूरी शक्ति से युद्ध किया किन्तु अर्जुन और भीम के सामने उसकी एक न चली । अन्त में उन्होंने राजा द्रुपद को बन्दी बनाकर अपने गुरु के सामने पेश किया।

राजा द्रुपद ने जब अपने सामने द्रोणाचार्य को देखा तो उनकी हैरानी की कोई सीमा न रही । वह शर्म के मारे धरती में गड़ा जा रहा था।

– क्यों राजा द्रुपद अब तुम्हारा क्या इरादा है । अब बताओ कि हम दोनों में बड़ा कौन है….?’

आप ही हैं।

मगर तुम्हें वह दिन याद है, जब हम और तुम सहपाठी थे तमने मुझसे वादा किया था कि मैं जब भी राजगद्दी पर बैठंगा आधा राज्य तुम्हें दे दूंगा।

क्या वह दिन भी याद है तुम्हें जब तुमने फटे हुए कपड़े देखकर कहा था तुम कौन हो? मैं तुम्हें पहचानता तक नहीं मैं तुमसे राज्य मांगने नहीं सहायता मांगने गया था।

अब मुझे लज्जित न करो द्रोण भाई! यह तो मेरी भूल थी कि मैं गद्दी के नशे में तुम्हारी मित्रता को भी भूल गया । अब मैं आपको अपने राज्य का आधा भाग खुशी से देने को तैयार हैं।

द्रपद मैं चाहूं तो तुम्हारा पूरे राज्य पर अपना अधिकार जमा सकता हूं। किन्तु नहीं, मैं ऐसा नहीं करूंगा । तुझे तो ये बताना था कि ताकत और धन का नशा सदा नहीं रहता यह जीवन धूप छांव है, राजन! फिर तुम्हें तो मुझ पर दया नहीं आयी, आज मैं तुम पर दया करता हूं-जाओ तुम मेरी ओर से स्वतंत्र हो।


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