हैल्लो दोस्तों कैसे है आप सब आपका बहुत स्वागत है इस ब्लॉग पर। हमने इस आर्टिकल में Essay on Mahatma Gandhi in Hindi | महात्मा गाँधी पर 1 निबंध लिखे है जो कक्षा 5 से लेकर Higher Level के बच्चो के लिए लाभदायी होगा। आप इस ब्लॉग पर लिखे गए Essay को अपने Exams या परीक्षा में लिख सकते हैं।
क्या आप खुद से अच्छा निबंध लिखना चाहते है या अच्छा निबंध पढ़ना चाहते है तो – Essay Writing in Hindi
Contents
10 lines on Gandhi Ji in Hindi
- Mahatma Gandhi एक महान व्यक्ति थे, बापू के नाम से जाने जाते थे।
- उन्हें राष्ट्रपिता भी कहा जाता है।
- उनके परिश्रम के कारण ही भारत स्वतंत्र हुआ।
- महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 ईस्वी को पोरबंदर में हुआ।
- उनके पिता करम चंद्र गांधी राजकोट के दीवान थे।
- उनकी माता का नाम पुतलीबाई था।
- मैट्रिक पास करने के बाद वह इंग्लैंड गए। वह बैरिस्टर बनकर भारत लौटे।
- एक मुकदमे में बहस करने के लिए वह दक्षिण अफ्रीका गए। वहां के भारतीयों को उनके जमीदारों से मुक्ति दिलाई इसके लिए उन्होंने सत्याग्रह शुरू किया।
- वे भारत लौटे और आजादी के लिए संघर्ष करने लगे।
- अंततः उन्हें सफलता मिली, भारत स्वतंत्र हुआ। हमलोगो गांधीजी की राहों पर चलना चाहिए।
Short essay on Mahatma Gandhi in Hindi (120 words)
मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म गुजरात के पोरबंदर नाम के जगह पर 2 अक्टूबर सन 1869 ईस्वी में हुआ था। उनके पिता जी राजकोट के वजीर थे। उनकी उच्च शिक्षा इंग्लैंड में हुई। गांधीजी इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर लौटे। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकार के लिए संघर्ष किया। वे हमेशा हिंदू मुस्लिम एकता को पछधर रहे तथा इसके लिए आजीवन प्रयत्न करते रहे।
उन्होंने गरीबी हटाने तथा छुआछूत को दूर करने के लिए सदा प्रयत्न किया। वे स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हुए तथा कई बार जेल भी गए। गांधी जी के नेतृत्व में ही भारत को ब्रिटिश शासकों से स्वतंत्रता प्राप्त हुई। सत्य और अहिंसा गांधीजी के दो हथियार थे। गांधी जी की मृत्यु नाथूराम गोडसे के गोली मरने से 30 जनवरी सन 1948 को हुई। गांधी जी को राष्ट्रपिता कहते हैं।
Essay on Mahatma Gandhi in Hindi (350 words)
मेरा प्रिय नेता (राष्ट्रपिता महात्मा गांधी) जब-जब पृथ्वी पर पाप और अत्याचार बढ़ जाता है, तब महान् विभूतियाँ अवतरित होकर संसार को कष्टों से मुक्ति दिलाती हैं। वर्षों की पराधीनता के कारण भारत देश की दुर्दशा हो रही थी। अंग्रेजों की दमन नीति के कारण भारत में पाप और अत्याचार बढ़ गया। ऐसे समय में सत्य और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी का आविर्भाव हुआ। उन्होंने एकता और स्वाधीनता का सन्देश देकर लोगों में अग्नि प्रज्वलित करदी तथा कुछ ही दिन में अंग्रेजी राज्य की जड़ें हिला दी। लोग उन्हें बापू एवं राष्ट्रपिता कह कर पुकारते थे।
Mahatma Gandhi का पूरा नाम मोहनदास कर्मचन्द गांधी था। इनका जन्म 2 अक्तूबर, 1869 ई० को पोरबन्दर में हुआ। इनकी माता का नाम पुतली बाई था। माता की धार्मिक भावनाओं का गांधी जी पर बहुत प्रभाव पड़ा। इनके पिता करमचन्द गांधी पोरबन्दर रियासत के दीवान थे। मोहनदास का विवाह तेरह वर्ष की अवस्था में कस्तूरबा से हो गया। अठारह वर्ष की अवस्था में मैट्रिक पास करके गांधी जी ने भावनगर के श्यामल कालेज में प्रवेश किया। फिर बैरिस्टरी पढ़ने के लिए ये इंग्लैंड चले गए।
1891 में गांधी जी बैरिस्टरी पास करके बम्बई में वकालत करने लगे। 1892 में एक व्यापारी के मुकदमे के सिलसिले में अफ्रीका गए। वहाँ मुकदमा जीतने के बाद गोरों द्वारा कालों के प्रति किए जाने वाले दुर्व्यवहार का उन्होंने विरोध किया। इसके पश्चात् उन्होंने वहाँ नेशनल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की।
भारत लौटकर गांधी जी ने भारत के लोगों की दुर्दशा को देखा। अंग्रेजों को इस दुर्दशा का मुख्य कारण जानकार उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का संकल्प लिया। उन्होंने सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन चलाकर अंग्रेजी राज्य की जड़ें हिला दीं। जेलें भर गईं। अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा। 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू बने।
अंग्रेज़ों ने हमें आजादी तो दे-दी, किन्तु भारत और पाकिस्तान के रूप में भारत का विभाजन कर दिया गया। इस समय भारत और पाकिस्तान में लाखों लोग बेघर हो गए हज़ारों बच्चे अनाथ हो गए तथा हज़ारों स्त्रियों के सुहाग उजड़ गए। उस समय गांधी जी ने दुखी मानवता को प्रेम और एकता का सन्देश दिया। उन्होंने अछूतों के उद्धार के लिए और ग्रामों में सुधार लाने के लिए भरसक प्रयत्न किए। उन्होंने राम और रहीम को एक मानकर भारत में राम-राज्य स्थापित करने का स्वप्न देखा।
दुर्भाग्य से 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे की गोली से गांधी जी ‘हे राम’! कहते हुए चिरनिद्रा में सो गये। राजघाट पर उनकी समाधि बनाई गई।
गांधी जी आज हमारे मध्य नहीं हैं ; परन्तु उनके आदर्श आज भी हमारा मार्ग-दर्शन कर रहे हैं। उन्होंने अपना जीवन देश की स्वतन्त्रता, अछूतोद्धार, ग्राम सुधार और हिन्दू-मुस्लिम एकता में लगा दिया। हमें अपना जीवन उनक अपूर काम को पूरा करने में लगाना चाहिए। यही हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
महात्मा गाँधी पर निबंध (400 Words)
परिचय
Mahatma Gandhi भारतीय अंतरिक्ष में ही नहीं, विश्व व्योम में चमकनेवाले एक ऐसे सूर्य हैं, जिनकी चमक से सम्पूर्ण विश्व अनंतकाल तक चकाचौंध रहेगा। सत्य, अहिंसा और परोपकार की जो ज्योति इन्होंने जलाई, उनकी किरणों में ही सम्पूर्ण मानवता का कल्याण छिपा है। राष्ट्र की प्रत्येक संतान को इन्होंने पिता की दृष्टि से देखा, फलतः ये राष्ट्रपिता और बापू कहलाए।
प्रारम्भिक जीवन
इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। इनका जन्म गुजरात राज्य के राजकोट जिले के पोरबंदर नामक ग्राम में 2 अक्तूबर 1869 को हुआ था। इनके पिता करमचंद गाँधी राजकोट रियासत के दीवान थे और माता पुतलीबाई धार्मिक संस्कारों से पूर्ण एक कुशल गृहिणी थीं। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई। 13 वर्ष की अल्पायु में ही इनकी शादी कस्तूरबा बाई से हुई। 1887 ई. में इन्होंने इंट्रेस की परीक्षा पास की। इनके भाई लक्ष्मीदास इन्हें वकालत के पेशे से जोड़ना चाहते थे। अतः इसकी पढ़ाई के लिए इन्हें विलायत जाना पड़ा। बारिस्टरी की परीक्षा पास करने के बाद 1891 ई. में ये विलायत से भारत लौटे और मुम्बई उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।
राजनीतिक जीवन
1893 ई. में एक मुकदमे के सिलसले में इन्हें दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ भारतीय मूल के लोगों पर अँगरेजों का असहनीय अत्याचार चल रहा था। गाँधीजी यह सब देखकर द्रवित हो उठे। इन्होंने सत्य-अहिंसा को आधार बनाकर शोषण के विरुद्ध सशक्त आवाज बुलंद की। फलतः भारतीयों पर ढाए जानेवाले जुल्मों और अत्याचारों में कुछ कमी आई।
महत्ता
ये 1914 ई. में स्वदेश लौटे। यहाँ भी अँगरेजों का वही दमनचक्र चल रहा था। फलतः इन्हें राजनीति में कूदना पड़ा। चाहे चम्पारण में किसान के शोषण का सवाल हो या अहमदाबाद में मिल-मजदूरों की समस्या, हर जगह इन्होंने सफलता पाई। लेकिन, 1919 ई. में जालियाँवाला बाग कांड ने इनके हृदय को विदीर्ण कर दिया। फलतः इन्होंने ‘असहयोग आंदोलन’ का शंखनाद किया। बाद में 1930 ई. में ‘नमक आंदोलन’ की अगुआई की। लोग अँगरेजों से ऊब चुके थे, अतः इन्होंने 1942 ई. में ‘अँगरेजो, भारत छोड़ो’ का नारा बुलंद किया। अंततः हारकर अँगरेजों को भारत छोड़ना पड़ा और भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ।
उपसंहार
बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो’ के सिद्धांत पर चलनेवाला सत्य, अहिंसा और शांति का यह पुजारी भी हिंसा का शिकार हो गया। नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी 1948 को इनकी हत्या कर दी। लेकिन, यह महामानव आज मरकर भी अमर है। हमें इनके द्वारा बतलाए मार्गों पर चलना चाहिए। यही इनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
महात्मा गाँधी पर निबंध (450 + Words)
राष्ट्र पर जब जब संकट का कालमेघ छाता है, तब प्रभु स्वयं या अपने प्रधान प्रतिनिधि को राष्ट्र रक्षा के लिए भेजते है। हमारा देश भी जब अंग्रेजों के अत्याचार से कराह रहा थी, जब भारतमाता स्वतंत्रता देवी के रूप में परतंत्रता के कारागार में बंदी थी। तब उन्हें मुक्त करने के लिए मोहन ने मोहनदास के रूप में अवतार ग्रहण किया।
Mahatma Gandhi भारतीय अंतरिक्ष में ही नहीं, विश्व व्योम में चमकनेवाले एक ऐसे सूर्य हैं, जिनकी चमक से संपूर्ण विश्व अनंत काल तक चकाचौंध रहेगा। सत्य, अहिंसा और परोपकार की जो ज्योति इन्होंने जलाई, उनकी किरणों में ही संपूर्ण मानवता का कल्याण छिपा है। राष्ट्र की प्रत्येक संतान को इन्होंने पिता की दृष्टि से देखा, फलतः ये राष्ट्रपिता और बापू कहलाए।
इनका पूरा नाम मोहन दास करमचंद्र गाँधी था। इनका जन्म गुजरात राज्य के राजकोट जिले के पोरबंदर नामक ग्राम में 2 अक्तूबर 1869 को हुआ था। इनके पिता करमचंद गाँधी राजकोट रियायत के दीवान थे और माता पुतलीबाई धार्मिक संस्कारों से पूर्ण एक कुशल गृहिणी थीं। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई।
13 वर्ष की अल्पायु में ही इनकी शादी कस्तूरबा बाई से हुई। 1887 ई. में इन्होंने इंट्रेंस की परीक्षा पास की। इनके भाई लक्ष्मीदास इन्हें वकालत के पेशे से जोड़ना चाहते थे। अतः इसकी पढ़ाई के लिए इन्हें विलायत जाना पड़ा। बारिस्टरी की परीक्षा पास करने के बाद 1891 ई. में ये विलायत से भारत लौटे और मुम्बई उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।
1893 ई. में एक मुकदमे के सिलसिले में इन्हें दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ भारतीय मूल के लोगों पर अँग्रेजों का असहनीय अत्याचार चल रहा था। गाँधीजी यह सब देखकर द्रवित हो उठे। इन्होंने सत्य-अहिंसा को आधार बनाकर शोषण के विरुद्ध सशक्त आवाज़ बुलंद की। फलतः भारतीयों पर ढाए जानेवाले जुल्मों और अत्याचारों में कुछ कमी आई। ये 1914 ई. में स्वदेश लौटे। यहाँ भी अँग्रेजों का वही दमन चक्र चल रहा था।
फलतः इन्हें राजनीति में कूद ना पड़ा। चाहे चंपारण में किसान के शोषण का सवाल हो या अहमदाबाद में मिल-मज़दूरों की समस्या, हर जगह इन्होंने सफलता पाई। लेकिन, 1919 ई. में जालियाँवाला बाग कांड ने इनके हृदय को विदीर्ण कर दिया। फलतः इन्होंने ‘असहयोग आंदोलन’ का शंखनाद किया। बाद में 1930 ई. में ‘नमक आंदोलन’ की अगुआई की। लोग अँग्रेजों से ऊब चुके थे, अतः इन्होंने 1942 ई. में ‘अँग्रेजों, भारत छोड़ो’ का नारा बुलंद किया।
अंततः हारकर अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा और भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। ‘बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो’ के सिद्धांत पर चलने वाला सत्य, अहिंसा और शांति का यह पुजारी भी हिंसा का शिकार हो गया। नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी 1948 को इनकी हत्या कर दी। लेकिन, यह महामानव आज मरकर भी अमर है। हमें इनके द्वारा बताए मार्गों पर चलना चाहिए। यही इनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
महात्मा गांधी का शिक्षा-दर्शन
Mahatma Gandhi एक महान् दार्शनिक, शिक्षा शास्त्री । थे। उन्होंने ‘ईश्वर’ से लेकर परिवार-नियोजन’ तक
हर बात पर अपने विचार प्रकट किए। वह भारत के प्राचीन मानवीय-आदर्शवाद से बहत प्रभावित थे। । उनके कुछ दार्शनिक सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है।
ईश्वर में पूर्ण विश्वास
सभी आदर्शवादियो की भांति गांधीजी भी ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते थे। वह ईश्वर को सर्वव्यापक मानते थे। ईश्वर अन्तिम सत्य है, और सर्वोच्च शासक है। वह सत्य है; प्रेम है, नैतिकता है तथा प्रकाश और जीवन का स्त्रोत है। वह निर्माण करता है,विनाश करता है, फिर निर्माण करता है। अतः वह चाहते थे कि लोगों को ईश्वर के सजीव एवं सर्वप्रभुत्व सम्पन्न सत्ता में विश्वास रखना चाहिए। जीवन का अन्तिम उद्देश्य ‘ईश्वर-अनुभूति’ होना चाहिए।
सत्य
Mahatma Gandhi के लिए ईश्वर सत्य है और सत्य ईश्वर है। अन्दर की आवाज ही सत्य है। यह आत्मा की पुकार है। वह स्वयं सत्य का अनुभव करना चाहते थे। वह चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति को सत्य की खोज करनी चाहिए। अन्तिम सत्य या ईश्वर ही गांधीजी के दर्शन का साध्य है। सत्य इस अन्तिम सत्य या ईश्वर को प्राप्त करने का साधन है। गांधीजी ने स्वयं कहा है, ‘सर्वव्यापक सत्य साध्य है और सच्चाई द्वारा-अर्थात् कठोर अनुशासित जीवन निर्धनता, असंचयता, अहिंसा, विनम्रता, अनुशासित मन, शरीर तथा आत्मा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
अहिंसा
सत्य के लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन अहिंसा है। हिंसा से पूर्ण मुक्ति ही अहिंसा है अर्थात् घृणा, क्रोध, भय, अहंकार, कुभावना से मुक्ति। अहिंसा में विनम्रता, उदारता, प्यार, धैर्य, हृदय की शुद्धता तथा चिन्तन, वाचन तथा कर्म में भावुकता का अभाव सम्मिलित है। यह हमें सभी जीवों को प्यार करने की प्रेरणा देती है। यह आत्मा को शुद्ध करती है।
सत्याग्रह
सत्याग्रह अहिंसा का व्यावहारिक प्रयोग है। यह दूसरों को दुःख देने की बजाय स्वयं दुःख झेल कर न्याय प्राप्त करने की विधि है। सत्याग्रह के द्वारा शान्ति की रक्षा की जा सकती है। सच्चा सत्याग्रही वह है जो सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अभय, असतेय (चोरी न करना) तथा असंचय में विश्वास रहता हो। अतः सत्याग्रही का जीवन कठोर अनुशासन पर आधारित होता है।
व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रकृति
गांधीजी का विश्वास था कि व्यक्ति में आध्यात्मिक-तत्त्व है। वह आध्यात्मिक जीवन है। अतः व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिए भौतिक नहीं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य को साध्य समझा जाना चाहिए, साधन नहीं।
प्रेम
Mahatma Gandhi Ji मानव-प्रेम में दृढ़ विश्वास रखते थे। उनके लिए प्रेम ही नैतिकता का सार है। प्रेम के बिना किसी प्रकार की नैतिकता सम्भव नहीं। प्रेम से ही सत्य प्राप्त होता है। प्रेम मनुष्य को ईश्वर की ओर ले जाता है। प्रेम के कारण सभी कर्त्तव्य आनन्दमय हो जाते हैं। अतः समस्त जीवन का मार्ग-दर्शन प्रेम के द्वारा ही होना चाहिए। गांधी जी द्वारा प्रतिपादित सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलन उनके मानव-प्रेम द्वारा प्रतिपदित सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोनलन उनके मानव-प्रेम द्वारा ही प्रेरित थे।
अध्यात्मिक समाज की धारणा
गांधीजी प्रेम, अहिंसा, सत्य, न्याय तथा धन के सम-वितरण के सिद्धान्तों पर आधारित आध्यात्मिक समाज की स्थापना करना चाहते थे। यह समाज सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक-हर प्रकार के शोषण से मुक्त होगा। इसमें किसी प्रकार के झगड़े नहीं होगें। नैतिक शक्ति तथा नैतिक मान्यता. ही इस समाज का मार्ग-दर्शन करेगी। सब की सेवा करना इस समाज के प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी कर्त्तव्य होगा। ईश्वर और मानवता की सेवा गांधीजी का सर्वोच्च धर्म था और उनका विश्वास था कि हम ईश्वर की सेवा तभी कर सकते है जब हम ईश्वर के बनाए हुए जीवों की सेवा करें।
गांधीजी अपने दार्शनिक विचारों को वास्तविक जीवन में कार्यन्वित करने का भरसक प्रयत्न करते रहे।
गांधीजी का शिक्षा-दर्शन
शिक्षा साक्षरता नहीं
Mahatma Gandhi Ji के अनुसार साक्षरता अपने आप में शिक्षा नहीं। साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न ही आरम्भ। यह न तो ज्ञान है और न ही ज्ञान का माध्यम। यह तो केवल एक साधन है जिसके द्वारा लोगों को शिक्षित किया जाता है।
शिक्षा विकास है
Mahatma Gandhi Ji के लिए शिक्षा का अर्थ है – बच्चे और मनुष्य का सर्वमुखी विकास। उनके शब्दों में, शिक्षा से मेरा मतलब है बच्चे और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा में जो कुछ सर्वोत्तम है, उसे बाहर निकालना। वास्तव में गांधीजी की शिक्षा मानव व्यक्तित्व के सभी पक्षों-शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आध्यात्मिक आदि-के समरूप तथा सन्तुलित व्यक्तित्व के लिए है ताकि व्यक्ति लक्ष्य-सत्य को प्राप्त कर सके।
शिक्षा के उद्देश्य
गांधीजी की शिक्षा-धारणा के द्विमुखी उद्देश्य हैं तात्कालिक तथा अन्तिम।
शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य
गांधीजी की शिक्षा-धारणा के कई उद्देश्य निम्नलिखित हैं
जीवकोपार्जन अथवा व्यावसायिक उद्देश्य
गांधीजी का विश्वास था कि रोजी कमाने की योग्यता प्रदान की जानी चाहिए। इसे व्यक्ति को अपने पैरों पर खड़े होना सिखाना चाहिए गांधीजी के शब्दों में, ‘शिक्षा बच्चों के लिए बेरोजगारी के विरूद्ध बीमा होना चाहिए।
सांस्कृतिक उद्देश्य
Mahatma Gandhi Ji व्यवसाय को ही जीवन का उद्देश्य नहीं मान सकते थे। इसलिए उन्होंने संस्कृति की ओर भी ध्यान दिया गांधीजी के शब्दों में, साक्षरता की अपेक्षा सांस्कृतिक तत्व को अधिक महत्व देता हूं। संस्कृति प्रारम्भिक एवं बुनियादी वस्तु है जिसे लड़कियों को स्कूल से प्राप्त करना चाहिए।’ इस दृष्टिकोण से गांधीजी ने संस्कृति को शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य से युक्त शिक्षा मनुष्य को अंहकार, पक्षपात तथा प्रतिबन्ध से मुक्त करती है और उसे वस्तुओं को अपने वास्तविक रूप देने की योग्यता प्रदान करती है।
चरित्र का उद्देश्य
गांधीजी चरित्र-निर्माण को शिक्षा का उचित आधार मानते थे। अतः समस्त ज्ञान का लक्ष्य चरित्र-निर्माण को शिक्षा का उचित आधार मानते थे। अतः समस्त ज्ञान का लक्ष्य चरित्र-निर्माण होना चाहिए। चरित्र-निर्माण में साहस, विश्वास की शक्ति, सच्चाई, शुद्धता, आत्मनियन्त्रण और मानव-सेवा आदि नैतिक गुणों का विकास सम्मिलित है। गांधीजी के अनुसार शिक्षा चरित्र के बिना, पवित्रता के बिना व्यर्थ है।
पूर्ण विकास का उद्देश्य
बच्चे का सर्वतोन्मुखी तथा पूर्ण विकास ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। सर्वतोन्मुखी विकास का अर्थ है-बुद्धि,हृदय तथा हाथों का विकास । “मनुष्य न तो केवल बुद्धि है, न ही केवल पशु तुल्य शरीर, न वह केवल दिल है और न ही केवल आत्मा।
शिक्षण विधियां
शिल्प द्वारा शिक्षा
गांधीजी ने इस बात पर जोर दिया कि शिक्षा किसी शिल्प या उत्पादक-कार्य द्वारा दी जानी चाहिए। इसी शिल्प के द्वारा ही अन्य सभी विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए। वह शिल्प को केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं समझते थे बल्कि चरित्र-निर्माण का साधन भी समझते थे। शिल्प-केन्द्रित शिक्षा द्वारा वह बच्चों को हाथ का काम सिखाना चाहते थे।
क्रिया-विधि तथा आत्म-अनुभव द्वारा सीखना
Mahatma Gandhi Ji ने शिक्षण-क्षेत्र में क्रिया विधि पर बहुत जोर दिया है। उनका विचार था कि ‘काम द्वारा सीखना’ तथा ‘आत्म अनुभवों द्वारा सीखना’ अत्यन्त प्रभावशाली शिक्षण-विधियां है।
भाषण एवं प्रश्न-विधि
गांधीजी ने भाषण एवं प्रश्न-विधि की उपयोगिता को भी स्वीकार किया है।
मातृभाषा-शिक्षा का माध्यम
गांधीजी चाहते थे कि समस्त शिक्षा मात-भाष के माध्यम से दी जानी चाहिए।
जाकिर हुसैन कमेटी के शब्दों, ‘गांधीजी ने इस बात का समर्थन किया था कि शिक्षण में सहयोगात्मक क्रिया,योजना, शुद्धता, उपक्रम तथा व्यक्तिगत उत्तर-दायित्व पर बल देना चाहिए।
अनुशासन
गांधीजी द्वारा अनुशासन का समर्थन करते थे। उन्होंने आत्म-अनुशासन (Social discipline) या उस अनुशासन पर बल दिया जो मनुष्य के भीतर से पैदा हो। अतः उनकी अनुशासन-सम्बन्धी धारणा व्यक्तिगत नहीं थी। यह सामाजिक-अनुशासन की धारणा थी। वह शिक्षा द्वारा आदर्श नागरिकों के निर्माण पर जोर देते थे वह चाहते थे कि विद्यार्थी देश के सफल एवं उत्तरदायी नागरिक बनें।
अध्यापक
गांधीजी का विचार था कि केवल अच्छे अध्यापक ही शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता दे सकते हैं। अध्यापक में ज्ञान, कौशल, उत्साह, देशभक्ति, सशक्त चरित्र तथा विशिष्ट प्रशिक्षण होना चाहिए। उसे मित्र, दार्शनिक तथा मार्ग-दर्शक होना चाहिए। उसे अहिंसा एवं सत्य के आदर्शों तथा सामाजिक दृष्टिकोण से प्रभावित होना चाहिए। उसे जीवन और शिक्षा के लक्ष्यों के प्रति सचेत होना चाहिए।
उसे स्वयं उन्हीं गुणों को धारण करना चाहिए जिन्हें वह विद्यार्थियों में निर्मित करना चाहता है। उसे अपने विद्यार्थियों के साथ निकट का सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए। उसे विद्यार्थियों के मस्तिष्क की। अपेक्षा उनके हृदय को अधिक प्रशिक्षित करना चाहिए।
नारी-शिक्षा पर गांधीजी के विचार
गांधीजी नारी की स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे। वह कहा करते थे ‘मेरी सब से बड़ी आशा नारियों पर ही आधारित है। उन्हें अपने नारकीय जीवन से मुक्ति प्राप्त करने में सहायक की आवश्यकता है। उन्हें उनकी विशिष्ट प्रवृत्तियों तथा जीवन की आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए। गांधीजी का विश्वास था कि अपनी प्रकृति के कारण ही नारी छोटे बच्चों के शिक्षण-कार्य के लिए सर्वोत्तम योग्यता रखती है।
शिक्षा में धर्म का स्थान धर्म
गांधीजी के जीवन का आवश्यक तत्व था। उनका विचार था, ‘धर्म के बिना जीवन का कोई सिद्धान्त नहीं होता और सिद्धान्त के बिना जीवन पतवार-हीन जहाज के समान होता है और पतवार-हीन जहाज स्थान-स्थान पर भटकता रहता है और कभी भी अपनी मंजिल पर नहीं पहुंचता।’
बेसिक शिक्षा के बुनियादी सिद्धान्त
निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा
महात्मा गांधी इस बात पर बल देते थे कि 7 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क अनिवार्य तथा सार्वभौमिक शिक्षा का आयोजन होना चाहिए। हां, यदि माता-पिता चाहें तो वे अपनी लड़कियों को 12 वर्ष की अवस्था में स्कूलों से निकाल सकते है। सात वर्ष के इस शिक्षा में गांधीजी ने प्राइमरी, मिडिल तथा हाईस्कूल की शिक्षा को सम्मिलित किया है। वह कहा करते थे कि प्राइमरी शिक्षा न्यूनतम सार्वभौमिक शिक्षा है जो सभी को दी जानी चाहिए अतः उन्होंने न्यूनतम सार्वभौमिक शिक्षा पर ही बल दिया है जिसे वह प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक मानते थे।
मातृ-भाषा शिक्षा का माध्यम
गांधींजी मातृ-भाषा के समर्थक थे। वह मातृ-भाषा को शिक्षा के माध्यम बनाने पर जोर दिया करते थे। उनका विश्वास था कि विदेशी भाषा के माध्यम से कोई भी वास्तविक शिक्षा सम्भव नहीं हो सकती। विदेशी भाषा मस्तिष्क पर जोर डालती है और मौलिकता का गला नही घोटती है तथा बच्चे में रटने की वृत्ति को प्रोत्साहन देती है।
दूसरी ओर मातृ-भाषा शीध्रता से सोचने, सुविधापूर्वक तथा स्वतन्त्रता से अभिव्यक्ति करने तथा तथा अपने विचारों में स्पष्टता लाने में सहायता देती है। इससे बच्चा अपनी प्राचीन संस्कृत की संवृद्ध परम्परा से परिचय प्राप्त करता है।
शिल्प-शिक्षा का केन्द्र
शिक्षा किसी शिल्प अथवा उत्पादक-कार्य पर केन्द्रित होनी चाहिए। इतिहास भूगोल, गणित, विज्ञान, भाषा, सगीत, चित्रकला आदि सभी विषय शिल्प के साथ ही सम्बन्धित होने चाहिएं। शिल्प की शिक्षा से गांधीजी शिल्पकार पैदा नहीं करना चाहते है। वह तो शिक्षात्मक उद्देश्यों के लिए शिल्प का प्रयोग करना चाहते थे। शिल्प-केन्द्रित शिक्षा से कई मानसिक एवं बौद्धिक योग्यताओं का विकास होता है। इससे सहयोगात्मक क्रिया, श्रम की भव्यता वर्गों की समता शुद्धता और उत्तरदायित्व का उदय होता है। बेसिक शिक्षा में शिल्प की व्यवस्था स्थानीय वातावरण की आवश्यकता के अनुसार की जाती है।
आत्म-निर्भरता का तत्त्व
‘सीखते हुए कमाना और कमाते हुए सीखना’ वार्धा-शिक्षा-योजना इसी सिद्धान्त पर आधारित है। भारत जैसे निर्धन देश में जहा शिक्षा के लिए अधिक खर्च करना असम्भव है वहां आत्म-निर्भरता ही सर्वोत्तम समाधान है। गांधीजी के लिए आत्म-निर्भरता ही बेसिक शिक्षा की कटु-परीक्षा है। विद्यार्थियों को अपनी बनाई हुई चीजों से अध्यापक के वेतन की व्यवस्था करनी चाहिए। राज्यों का अन्य खर्च करने चाहिए जैसे फर्नीचर, पुस्तकें, हथियारों तथा स्कूल-भवनों का खर्च। राज्य को स्कूल में बनाई हुई वस्तुओं को बेचने की सुविधा भी प्रदान करनी चाहिए।
अहिंसा का सिद्धान्त
गांधीजी चाहते थे कि भारत में भावी नागरिकों में अहिंसा का आदर्श जागृत किया जाए। महादेव देसाई के शब्दों में, ‘आत्म-निर्भर शिक्षा के विचार को अहिंसा की आदर्शात्मक पृष्ठभूमि से पृथक् नहीं किया जा सकता। अहिंसा सभी रोगों की अचूक दवा है।’ गांधीजी का कथन है कि ‘जहां सारा वातावरण अहिंसा की सुगंध से सुगन्धित होगा वहां लड़के और लड़कियां इकटठे पढ़ते हुए स्वतन्त्रापूर्वक आत्म-निर्धारित अनुशासन को मानते हुए भाई-बहन के समान रहेंगे, अध्यापक एवं विद्यार्थियों का सम्बन्ध पितृ-प्रेम, परस्पर-सत्कार एवं परस्पर विश्वास पर आधारित होगा।
विद्यार्थियों का प्रत्येक कार्य प्रेम द्वारा होना चाहिए। गांधीजी ने कहा था, ‘हम न तो शोषण कर सकते हैं और नहीं करेंगे। शिक्षा को अहिंसा पर आधारित करने के सिवा हमारे पास और कोई रास्ता नहीं।
नागरिक का आदर्श
वार्धा शिक्षा-योजना सहयोग को प्रोत्साहन देती है और आदर्श-नागरिकता की नींव रखती है। यह तो अच्छे नागरिक के कर्त्तव्य और दायित्व निभाने की योग्यता प्रदान करेगी। इससे विद्यार्थियों के चरित्र का विकास होगा। इससे भव्यता, कुशलता तथा समाज-सेवा की भावना का विकास होगा।’
जीवन के साथ सम्बन्ध
स्कूल की शिक्षा बच्चों की जीवन-क्रियाओं तथा समस्याओं के साथ सम्बन्धित होनी चाहिए। ऐसा समन्वय तथा एकता के सिद्धान्तों के आधार पर किया जा सकता है। शिक्षा से बच्चों को जीवन की समस्याओं को समझने तथा उनका समाधान करने में सहायता मिलनी चाहिए।
टैगोर और गांधी का तुलनात्मक अध्ययन
दोनों आदर्शवाद के रूप में
गांधी और टैगोर दोनों ही आदर्शवादी हैं। दोनों का भगवान् में दृढ़ विश्वास है। दोनों भगवान को सत्य और सर्वोच्च समझते हैं। दोनों इस बात पर जोर देते हैं कि जीवन का वास्तविक मनोरथ भगवान् या ज्ञान और उसकी प्राप्ति है। दोनों अविनाशी सुन्दरता और सहज, निरपेक्ष कीमतों और अटल तथा न बदलने वाली वास्तविकता पर पूर्ण विश्वास रखते हैं।
दोनों ही बाल केन्द्रित शिक्षा के समर्थक के रूप में
गांधी और टैगोर दोनों ही बाल-केन्द्रित शिक्षा के समर्थक हैं। वह बच्चे के व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं। शिक्षा बच्चे के लिए है न कि बच्चा शिक्षा के लिए, यह उनका विश्वास है।
दोनों जीवन-केन्द्रित शिक्षा के समर्थक के रूप में
गांधी और टैगोर दोनों ही जीवन-केन्द्रित शिक्षा पर जोर देते हैं। वह शिक्षा को जीवनपर्यन्त और निरन्तर प्रक्रिया मानते हैं। शिक्षा को जीवन की समस्याओं को समझने और सुलझाने में बच्चे की सहायता करनी चाहिए। स्कूल का वातावरण और कार्यक्रम जीवन के वास्तविक अभिप्रायों और वास्तविकता को अपने हाथों में लेने वाला होना चाहिए। उनका विश्वास है कि पाठ्यक्रम को भ्रातृत्व और व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करने चाहिए।
दोनों क्रियात्मक विधि के समर्थन
गांधी और टैगोर दोनों ही क्रियात्मक विधि के समर्थक हैं। वह शिक्षा का आधार निर्माण करने वाली रचनात्मक क्रियाओं पर रखते हैं। वह केवल मौखिक शिक्षा ही पसन्द नहीं करते हैं।
दोनों कठोर मेहनत में विश्वास रखते हैं
गांधी और टैगोर दोनों ही तकनीकी कार्य या शिल्पकारी को विशेष महत्व देते हैं। गांधीजी तकनीकी कार्य के सामाजिक और आर्थिक पक्ष पर जोर देते थे। गांधीजी की बेसिक स्कीम इस बात पर निर्भर करती है कि उचित ढंग से संगठित की हुई शिल्प-केन्द्रित शिक्षा सामाजिक सीमाओं को तोड़ेगी, मजदूरी की महानता सिखलाएगी, उत्पादक सामर्थ्य बढ़ाएगी, ज्ञान को शुद्धता और वास्तविकता प्रदान करेगी। टैगोर ज्ञान की इस शुद्धता की कला, संगीत, ड्राईंग और नाटक जैसे स्वयं प्रकट करने के रूप देता है।
मातृ-भाषा पर जोर
गांधीजी और टैगोर दोनों ही इस बात पर जोर देते हैं कि मातृ-भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए। उनका विश्वास ह कि विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा कोई वास्तविक शिक्षा सम्भव नहीं है। विदेशी भाषा मौलिकता का गला घोटती है, बच्चों की हड्डियों पर अनिश्चित दबाव डालती है और उनको केवल घोता लगान वाला बना देती है। जब कि दूसरी तरफ मातृ-भाषा बच्चे को तेजी से सोचने वाला, स्वतन्त्र अभिव्यक्ति और विचारों में स्पष्टता लाने में सहायता देती है। यह बच्चे को अपनी प्राचीन संस्कृति से जानकारी करवाएगी।
नैतिक शिक्षा
गांधीजी और महर्षि टैगोर दोनों ही नैतिक शिक्षा को विशेष महत्व देते हैं। वह बच्चों को धार्मिक और नैतिकता की ओर ले गए। अपनी विद्या की योजना में कला और साहित्य का उच्च अध्ययन भी शामिल किया।
आत्म-निर्भरता के क्षेत्र सम्बन्धी मतभेद
जब कि गांधीजी ने अपनी विद्या के बारे योजना में आत्म-निर्भरता के क्षेत्र पर जोर दिया, टैगोरजी का ऐसा कोई संकल्प नहीं था। गांधीजी कहते थे कि उनकी योजना खर्च पूरे करने के योग्य होनी चाहिए।
इससे भी आगे उनका विचार था कि वह संस्था को पूरी तरह आत्म-निर्भर होना चाहिए और जब विद्यार्थी स्कूल छोड़ें तो स्वयं निर्भर हों। गांधीजी के शब्दों में, ‘उनके लिए बेरोजगारी के प्रति एक प्रकार का बीमा होना चाहिए।’ दूसरी तरफ शान्ति-निकेतन में विद्यार्थी चाहे अपने फार्मकारखाने, अस्पताल और वर्कशाप चलाते हैं और गांवों में समाज-सेवा के लिए जाते हैं, पर सीखने के साथ-साथ रोजी कमाना उनका उद्देश्य नहीं।
स्वतन्त्रता सम्बन्धी मतभेद
चाहे गांधीजी और टैगोर दोनों ही बच्चों की स्वतन्त्रता का समर्थन करते हैं, पर फिर भी दोनां की स्वतन्त्रता के बारे में अन्तर है। टैगोर बच्चे की पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग करते हैं, जबकि गांधीजी बच्चे की क्रियाओं को उत्पादक शिल्प तक ही सीमित रखते हैं।
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