2 Best Essay on Paropkar in Hindi | परोपकार पर निबंध

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परोपकार पर निबंध | Essay on Paropkar in Hindi (900 Words)

प्रस्तावना

Paropkar के सम्बन्ध में हमारे ऋषि-मुनियों ने, हमारे धर्म-ग्रन्थों में अनेक प्रकार से चर्चाएँ की हैं। केवल चर्चाएँ ही नहीं की, अपतुि उसके अनुसार अपने जीवन को जिया। जीवन की सार्थकता परोपकार में ही निहित है, इसके लिए उन्होंने जो सिद्धान्त बनाए उसके अनुसार स्वयं उस पर चले। महाभारत के प्रणेता, पुराणों के रचनाकार श्री वेदव्यास जी ने परोपकार के महत्त्व को विशेष रूप से स्वीकारते हुए कहा कि

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनंद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।

इसी सन्दर्भ में श्री तुलसीदास जी ने कहा है

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहि अधमाई।।

परोपकार और प्रकृति

Paropkar के प्रति तो प्रकृति भी सदैव तत्पर रहती है। प्रकृति की परोपकार भावना से ही सम्पूर्ण विश्व चलायमान है। प्रकृति से प्रेरित होकर मनुष्य को परोपकार के लिए तत्पर रहना उचित है। प्रकृति के उपादानों के बारे में कहा जाता है कि वृक्ष दूसरों को फल देते हैं, छाया देते हैं, स्वयं धूप में खड़े रहते हैं। कोई भी उनसे निराश होकर नहीं जाता है उनका अपना सब कुछ परार्थ के लिए होता है। इसी प्रकार नदियाँ स्वयं दूसरों के लिए निरन्तर निनाद करती हुई बहती रहती हैं। इस विषय में कवि ने कहा है

वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचे नीर।
परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर।।

इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति अपने आचरण से लोगों को सन्देश देती हुई दिखाई देती है और परार्थ के लिए प्रेरणा लेनी प्रतीत होती है। प्रकति से प्रेरित होकर महापुरुषों का भी जीवन परोपकार में व्यतीत होता है उनकी संपत्ति का संचय दान के लिए होता है। प्रकति के उपादान निरन्तर परोपकार करते हुए दिखाई देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका कार्य ही परोपकार है। चन्द्र उदय होता है शीतलता प्रदान करता है चला जाता है। सूर्य उदाय होता है प्रकाश फैलाता है और चला जाता है। पष्प खिलते हैं. सगन्ध फैलाते हैं और मुझी जाते हैं। परोपकार में ही अलौकिक सुख की अनुभूति होती है।

परोपकार और भारतीय संस्कृति

भारतीय-संस्कृति में परोपकार के महत्त्व को सर्वोपरि माना है। भारत के मनीषियों ने जो उदाहरण प्रस्तुत किए, ऐसे उदाहरण धरती क्या सम्पर्ण ब्रह्माण्ड में भी नहीं सुने जाते हैं। यहाँ महर्षि दधीचि से उनकी परोपकार भावना से विदित होकर देवता भी सहायता के लिए याचना करते हैं और महर्षि अपने जीवन की चिन्ता किए बिना सहर्ष उन्हें हड्डियाँ तक देते हैं। याचक के रूप में आए इन्द्र को दानवीर कर्ण अपने जीवन-रूप कवच और कुण्डलों को अपने हाथ से उतारकर देते हैं।

राजा रन्तिदेव स्वयं भूखे होते हुए आए अतिथि को भोजन देते हैं। इस परोपकार की भावना से यहाँ की संस्कृति में अतिथि को देवता समझते है। विश्व में भारतीय संस्कृति ऐसी है जिसमें परोपकार को सर्वोपरि धर्म माना गया है। इसलिए तो हमारे धर्म-ग्रन्थों में सभी के कल्याण की कामना की गई है

सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभागभवेत।

Paropkar और स्वार्थ

इस तरह त्याग और बलिदान के लिए भारत-भूमि विश्व क्या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अप्रतिम हैं। अतः जीवन की सार्थकता कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने परोपकार में ही बताई है

“वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे” कि यदि परोपकार की प्रक्रिया समाप्त हो जाए तो संसार ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए प्रकृति भी लोगों को निरन्तर प्रेरित करती है कि सुखमय जीवन जीना चाहते हो तो यथा सम्भव परोपकार करें। परोपकार में स्वार्थ की भावना नहीं होती है। आज परोपकार में मनुष्य अपना स्वार्थ देखने लगा है। वणिक-बुद्धि से अपने हानि की गणना कर परोपकार की ओर प्रेरित होता है। इस भावना के अद्भूत होने से पारस्परिक वैमनस्यता बढ़ी है। द्वेष, ईर्ष्या ने स्थान ले लिया है। लोगों में दूरियाँ बढ़ी हैं। आपद्-समय में सहायता करना भूलते जा रहे हैं जिससे मनुष्य एकाकी जीवन जीने का आदी होता जा रहा है।

सामूहिकता की भावना नष्ट होती जा रही है, क्योंकि आज मनुष्य परोपकार से दूर होता जा रहा है। एक-दूसरे से दूरियाँ बनाने लगे हैं। उसे डर लगने लगा है कि व्यक्ति परोपकार की भावना लेकर हमसे परोपकार की अपेक्षा न करे। अतः Paropkar के सूत्र इतने ढीले हो गए हैं कि परोपकार में भी लोग, लोगों का स्वार्थ देखते हैं। इसका कारण है कि दो से चार बनाने में लगा मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि पर-पीड़ा का अनुभव नहीं होता है। प्रकृति समय-समय पर सावधान कर रही है। कि परोपकार से दूर मत हो, अन्यथा जीवन सरस न होकर नीरस हो जाएगा।

उपसंहार

जीवन में सुख की अनुभूति परोपकार से होती है। तो परोपकार का महत्त्व स्वयं ही प्रतीत होने लगता है। स्वयं प्रगति की ओर बढ़ते हुए दूसरों को अपने साथ ले चलना मनुष्य का ध्येय होगा तो सम्पूर्ण मानवता धन्य होगी। मात्र अपने स्वार्थ में डूबे रहना तो पशु प्रवृत्ति है। मनुष्यता से ही मनुष्य होता है। भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी देना ऐसी भावना तो मनुष्य में होनी चाहिए। इतनी भावना भी समाप्त हो जाती है तो पशुवत जीवन है।

जिस दिन Paropkar की भावना पूर्णतः समाप्त हो जाएगी उस दिन धरती की शस्य-स्यामला न रहेगी, माता का मातृत्व स्नेह समाप्त हो जाएगा। पुत्र अपनी मर्यादा को भूल जाएगा। अन्ततः मानव बूढ़े सिंह समूह की तरह इधर-उधर ताकता हुआ, पानी के लिए पुकार लगाता हुआ अपने ही मैल की दुर्गन्ध में सांस लेने के लिए विवश हो जाएगा। अतः सम्पर्ण सष्टि आज भी सहयोग की भावना से चल रही है। यह भावना समाप्त होते ही सब उलट-पुलट हो जाएगा। इसलिए श्री तुलसी ने कहा

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।


Paropkar in Hindi Par Bhashan (250 Words)

अध्यक्ष महोदय, प्रबुद्ध श्रोताओ और सुबुद्ध मित्रो!

मेरे लिए आज विशेष प्रसन्नता ओर गर्व का अवसर है कि मुझे आपके सामने आज परोपकार जैसे महत्वपूर्ण विषय पर अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिल रहा है। आशा है कि आप मेरे विचारों को ध्यान से सुनकर मुझे अनुगृहीत करेंगे।

Paropkar शब्द बड़ा महिमाशाली शब्द है, बड़ा अद्भूत ! यह दो पदों से बना है-” पर’ और ‘उपकार’! ‘पर’ यानी दूसरा, यानी गैर और अपरिचित। उपकार तो हम अपने भाई-बहनों पुत्र-पुत्रियों और सगे-संबंधियों पर भी करते हैं, पर वह परोपकार नहीं है। परोपकार वह है जो हम परायों के साथ करते हैं, अपरिचितों के साथ करते हैं; क्योंकि अपनों के साथ किए गए उपकार में कहीं न कहीं हमारा कोई न कोई स्वार्थ छिपा रहता है। जब हम किसी गैर के साथ कोई भलाई का काम करते हैं, जब हम किसी अनजान के आ· पोंछते हैं, जब हम किसी अपरिचित के होठों पर मुस्कान बिखेरते हैं, तब हम सच्चे अर्थों में Paropkar करते हैं।

जब हम किसी व्यक्ति के कष्टों, पीड़ाओं और अभावों को किसी भी अपने संबंध अथवा स्वार्थ-सीमा से बाहर रखकर दूर करने का प्रयत्न करते हैं तभी हम परोपकार करते हैं। कुछ लोग तो अपने शत्रु और विरोधी तक को दुख-कष्ट में देखकर उस पर उपकार करने से नहीं कतराते। स्वामी दयानंद सरस्वती को जिस रसोइये ने दूध में विष दिया था, उसी को उन्होंने रुपयों की एक थैली देते हुए कहा था, “जितना दूर हो सके, भाग जाओ, नहीं तो सुबह होते ही राजा तुम्हें फाँसी पर लटका देंगे।”

अनेक महापुरुषों ने अपने प्राण देकर मानव जाति की सेवा की। महर्षि दधीचि ने देवजाति के कल्याण के लिए अपनी अस्थियों को दान में दे-दिया था।


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