1 Best Essay on Pustak ki Atmakatha in Hindi | पुस्तक की आत्मकथा

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पुस्तक की आत्मकथा – Autobiography of Book |
Pustak ki atmakatha

अलमारी के एक कोने से एक फटी पुरानी पुस्तक उठाकर मैंने उसका नाम पढ़ने की कोशिश की। पुस्तक लगभग पचास वर्ष पुरानी थी। वह मेरे दादा जी की थी। उसमें दीमक लगी हुई थी। चूहों ने उसे कई जगह से कुतर डाला था। उलट-पुलट कर देखने पर पता चला कि वह महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण थी। वह संस्कृत भाषा में थी। मेरे दादा जी उसे बहुत संभाल कर रखते थे और प्रतिदिन पढ़ते थे। पुस्तक की इस दुर्दशा को देखकर मुझे दादा जी की याद आई जो इस संसार में अब नहीं हैं। अनायास कुछ आँसू मेरी आँखों से गिर कर उस पुस्तक पर पड़े।

मैं पुस्तक को एक टक देख रहा था। पुस्तक मानो मेरे साथ बातें कर रही थी। पुस्तक बोली। “हाँ, मैं रामायण हूँ; मैं पुस्तक हूँ, मैं ज्ञान का भण्डार हूँ। मुझ में ही श्रीराम का पूरा जीवन-चरित समाया हुआ है।”

मैंने पुस्तक से पूछा, “तुम्हारा जन्म कैसे हुआ”? पुस्तक बोली, “मेरा पहला रूप भोजपत्र पर था। प्राचीनकाल में कागज़ न होने के कारण लोग भोजपत्र पर लिखते थे। बाद में चीन में कागज़ का आविष्कार हुआ। छापेखाने बने। पुस्तक का यह रूप मुझे सदियों बाद प्राप्त हुआ। मेरे ऊपर सुन्दर सुनहरी जिल्द चढ़ाई गई। मुझे बहुत सम्मान प्रदान किया गया। सुन्दर वस्त्र में ढक कर मुझे रखा जाता था। लोग मुझे प्रणाम करते थे।”

मैंने पुस्तक से फिर पूछा, “तुम्हारा कोई और रूप भी है? पुस्तक बोली, “मेरे भिन्न-भिन्न रूप हैं; मेरे भिन्न-भिन्न नाम हैं। दुकानों पर आपको कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, कविता आदि की पुस्तकें मिलेंगी। पुस्तकें कई भाषाओं की और कई विषयों की हैं। भूगोल, इतिहास, विज्ञान आदि कई विषयों की पुस्तकें होती हैं।”

पुस्तक बोली, “मैं ज्ञान का भण्डार हूँ और मनोरंजन का साधन हूँ। मैं लोगों को सही मार्ग दिखाकर उनका पथ प्रदर्शन करती हूँ। मैं उनकी उन्नति का आधार हूँ। मैं नन्हें बच्चों की पाठ्य-पुस्तक हूँ और बड़ों को सफलता दिलाने वाली कुंजी हूँ। मैं हिन्दुओं की रामायण हूँ तो सिक्खों का गुरुग्रंथ साहब भी। मैं मुसलमानों की कुरान शरीफ हूँ तो ईसाइयों की बाइबिल भी।

मैं सरस्वती का वरदान हूँ। मैं विद्वानों की मित्र हूँ। मेरा सदुपयोग करने वाले न केवल लाभान्वित होते हैं, प्रत्युत जीवन में सफल भी होते हैं। जो मेरा आदर नहीं करते या मुझे चीर-फाड़ कर फेंकते हैं वे आजीवन अशिक्षित रहते हैं। जी हाँ, मैं पुस्तक हूँ।” पुस्तक हँस कर कुछ और बताने जा रही थी कि सहसा मैंने उसे अपने पास बैठने के लिए खींचा; पर यह क्या? पास में रखी अलमारी से कितनी ही किताबें मेरे ऊपर आ गिरी और मेरी आँख खुल गई।


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