full Story on Telephone ka Avishkar| टेलीफोन का आविष्कार

इस आर्टिकल में हमने Telephone ka Avishkar| टेलीफोन का आविष्कार कब कैसे और किसने किया ये सब बहुत गहराई में समझाया है।


टेलीफोन का आविष्कार – Telephone ka Avishkar

जब आप टेलीफोन में बोलते हैं, तब आपकी वाणी या शब्द विद्युत् के आवेगों में बदल जाती है। ये विद्युत आवेग तारों पर चलते हैं और रिसीवर में पहले वाली ध्वनि में बदल जाते हैं।

लोग हजारों वर्ष से ध्वनि पर विचार और परीक्षण करते आए हैं, पर पिछले लगभग सौ वर्षों में ही ध्वनि को कुछ तर्क-संगत ढंग से समझा गया है। 2300 वर्ष पहले पैदा हुए एक यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने ध्वनि की प्रकृति के बारे में एक बढ़िया अटकल लगाई थी। उसने कहा था कि ध्वनि वस्तुओं से वायु पर चोट लगने से पैदा होती है जिससे वायु सिकुड़ती और फैलती है। पर कई शताब्दियों तक इस सिद्धान्त को सच या झूठा सिद्ध करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया।

विज्ञानं और जिज्ञासा पर निबंध

अन्त में उन्नीसवीं शताब्दी में फिर दिलचस्पी पैदा हुई और बहुत-से लोगों ने ध्वनि का अध्ययन और उसके विषय में परीक्षण शुरू किए। जी. एस. ओम, लार्ड केलविन, एच. वान हेल्महोल्ट्स और अन्य व्यक्तियों ने ध्वनि विज्ञान के बहत-से बुनियादी नियमों पर विचार किया। इसके अतिरिक्त, हेल्महोल्ट्स ने कान से ध्वनि पकड़ने, अर्थात सुनने के बारे में एक व्याख्या पेश की। इस विषय में इस प्रकार टेलीफोन के अमेरिकन आविष्कारक अलेक्जेण्डर ग्राहम बेल के लिए मंच तैयार हो चुका था।

वोल्टा, ऐम्पियर और अन्य लोगों ने बिजली की बुनियादी विशेषताओं के बारे में नियम निर्धारित कर दिए थे। केलविन, हेल्महोल्ट्स और अन्य लोगों ने यह स्पष्ट कर दिया कि ध्वनि कैसे पैदा होती है और हम उसे कैसे सुनते हैं। सिर्फ एक आदमी की जरूरत थी जो ज्ञान के इन दोनों क्षेत्रों को एक जगह मिला सके जिससे ध्वनि को तारों पर ले जाया जा सके। बेल वह आदमी सिद्ध हुआ और सन् 1876 में उसके कई वर्ष के कठिन परिश्रम और परीक्षण सफल हो गए। टेलीफोन का जन्म हो गया।

इससे भी बड़ी बात यह हुई कि उसके परीक्षणों । और सफलता ने ऐसी बुनियाद डाल दी जिस पर दूसरे वैज्ञानिक भवन निर्माण कर सकें। ग्रामोफोन, रेडियो, टेलीविज़न और अन्य इलेक्ट्रानिक साधनों के आविष्कारों पर बेल का उसी तरह ऋण है जैसे बेल पर उससे पहले वाले वैज्ञानिकों का था।

ध्वनि – Sound

टेलीफोन समझाने से पहले यह बता देना अच्छा होगा कि ध्वनि क्या होती है, और हम उसे कैसे सुनते हैं। कल्पना कीजिए कि आप पार्क में बैठे क्रिकेट का खेल देख रहे हैं। बोलर वहां हाथ घुमाकर गेंद फेंकता है और खिलाड़ी गेंद को बल्ले से मारकर दूर मैदान में पहुंचा देता है। आपको बल्ले पर गेंद टकराने की ‘खट्’ ध्वनि सुनाई देती है। वह ध्वनि कैसे पैदा हुई और वह आपके कान तक कैसे पहुंची?

इसका उत्तर देने से पहले हमें हवा के बारे में कुछ और जानकारी होनी चाहिए जिसमें चलकर ध्वनि आई है। हवा नाइट्रोजन और आक्सीजन आदि अनेक गैसों के परमाणुओं और अणुओं से बनी हुई है। ये अणु तीव्र गति कर रहे हैं। सब दिशाओं मे इधर-उध पर चल रहे है। एक-दूसरे से टकरा रहे हैं और नई दिशाओं में निकल-भाग रहे हैं। हवा के प्रत्येक धन इंच में ऐसे अरबों अणु हैं।

जब बल्ला गेंद पर लगता है तब दोनों के बीच की हवा बाहर हो जाती हैं इस क्रिया को बहुत बारीकी से देखिए। जब बल्ला गेंद के पास पहुंचा हैं, तब उनके बीच की हवा बीच में से हट जाती है। कुछ अन्तिम अणुओं को बहुत तेज़ चलना पड़ता है। पक्के फर्श पर फैले हुए पानी पर हथौड़ा मारने की क्रिया पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। यदि पानी के ठहराव पर हथौड़ा से पानी दब जाता है। जिससे वह सब दिशाओं में उछल जाता है।

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बहुत कुछ उसी तरह बल्ले और गेंद के के बीच के हवा के अणु बल्ला गेंद से लगने पर इधर-उधर हट जाते है। इन अणुओं के बहुत तेज़ चाल से चलने के कारण ये अपने से ठीक आगे वाले अणुओं से टकराते हैं फिर ये अणु अपने से पहले वाले अणुओं से टकराते हैं, और इस प्रकार वे तेज़ चाल से एक बढ़ते हुए दायरे में एक अणु से दूसरे अणु पर पहुंच जाते है।

अन्त में वे हमारे कान के हवा-परमाणुओं पर कसकर लगते हैं, और तब हमारे कान के पर्दे पर टकराते हैं, जिस पर हमारे कान हमें बताते हैं कि हमने बल्ले और गेंद के टकराने की ‘खट्’ ध्वनि ‘सुनी है’ ।

इसे आसानी से समझने के लिए यह कल्पना कीजिए कि गेंद और बल्ले के बीच के अणुओं की पंक्ति और आपका कान, डोरियों पर बंधे हुए, कई-कई इंच दूरी पर एक कतार में लटके हुए हैं। पहली गेंद (अणु) गेंद और बल्ले के मिलने पर उनके बीच से हट जाती है।

यह पहली गेंद फिर दूसरी से टकराती हैं और दूसरी तीसरी से और इसी प्रकार नीचे तक पहुंच जाता है, और जब यह आवेग आगे बढ़ता है तब क्षण-भर के लिए ये गेंदें एक जगह इकट्ठी हो जाती हैं और उनके पीछे पंक्ति में ऐसी जगह रह जाती है जिसमें ये अपेक्षया दूर-दूर होती हैं। जिस जगह वे इकट्ठी हो जाती हैं, उसे ‘ऊंची दाब का क्षेत्र’ कहते हैं और जहां वे अलग-अलग हैं, उसे ‘नीची दाब का क्षेत्र’ कहते हैं।

असल में ‘ऊंची दाब’ और ‘नीची दाब’ शब्द वायु की दाब के बारे में है, क्योंकि जब वायु के अणु पास-पास होते हैं तब वायु की दाब ऊंची होती है, जैसे भाप के इंजन के सिलिण्डर में बहुत सारे जल वाष्प अणुओं के भर जाने से भाप की ऊंची दाब बन जाती है। ये ऊंची दाब और नीची दाब के क्षेत्र ही तरंगों के रूप में हमारे कान पर गुज़रते हुए कान के पर्दे पर कम्पन पैदा करते हैं, जिससे हम ध्वनि ‘सुनते हैं।

ऊंची दाब और नीची दाब के क्षेत्र सामान्य दाब पर ध्वनि पैदा होने के स्थान से लगभग 1100 फुट । प्रति सेंकड की चाल से चलते हैं। इस प्रकार यदि आप किसी विस्फोट से एक मील दूर हों तो ध्वनि-तरंगें आपके कान तक लगभग पांच सेकंड में पहुंचेंगी।

हम ध्वनि कैसे सुनते हैं

मनुष्य का कान एक अद्भुत यंत्र हैं कान के मार्ग का भीतरी सिरा कान के एक पर्दे से-एक लचीले खाल जैसे डायाफ्राम से बन्द है। इस पर्दे के पिछली ओर एक ही जगह से आरम्भ होनेवाली तीन छोटी-छोटी हड्डियां हैं। इनमें से एक हड्डी कान के पर्दे से जुड़ी हुई है। एक और हड्डी काक्लिया से जुड़ी हुई है-काक्लिया शंख की शकल का एक खोखला ढांचा होता है, जिसके कुछ हिस्से में द्रव भरा रहता है।

जब ऊंची दाबवाला क्षेत्र कान के पास से गुज़रतां है, तब कान का पर्दा थोड़ा-सा अन्दर की ओर दब जाता है। तब नीची दाबवाला क्षेत्र कान के पास से गुज़रता है, तब पर्दा थोड़ा-सा बाहर को खिंच जाता है। पर्दे के इस अन्दर-बाहर चलने या कम्पन से तीन

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हड्डियां (हथौंडा, निहान और रकाब) इकट्ठी हिलती हैं, क्योंकि वे एक जगह जुड़ी हुई हैं। उनके हिलने से कालिया का सिरा कांपने लगता है जिससे काक्लिया। के अन्दर के द्रव में एक लहर चलती है। इस द्रव के ऊपर छोटे-छोटे डोरी जैसे रेशे होते हैं जिनमें सूक्ष्म रोम होते हैं। द्रव में लहर आने से यह रेशे हिल लगते हैं और फिर स्थिर झिल्ली के नीचे रोम आगे-पीछे चलते हैं।

यदि ये रोम बाहर आपकी खाल पर होते तो आप कहते कि कोई चीज़ आपको गुदगुदी या सरसराहट पैदा कर रही है। पर क्योंकि ये रोम आपके कान के अन्दर हैं और कान स्नायु द्वारा आपके मस्तिष्क के एक दूसरे हिस्से से जुड़े हुए हैं, इसलिए रोमों की इस ‘गुदगुदी’ या सरसराहट को आप ‘ध्वनि’ कहते हैं।

ध्वनि के कम्पन आप अपनी उंगलियों में सचमुच अनुभव कर सकते हैं। एक बड़ा कागज़ अपने हाथों के बीच में और अपने मुख के पास कसकर पकड़िए। यदि आप ऊंचे स्वर से गांए तो कुछद स्वर गाते समय कागज को पकड़नेवाली उंगलियों में आपको कुछ गुदगुदी अनुभव होगी। वे उंगलियां ध्वनि को महसूस कर रही हैं, या ‘सुन रही हैं।

बेल का चिन्तन

हम अलेक्जेण्डर ग्राहम बेल के चिन्तन-क्रम का प्रायः प्रतिपद अनुसरण कर सकते हैं। ध्वनि वायु में गुज़रती हुई ऊंची दाब और नीची दाबवाली तरंगों की श्रेणी है। जब ये तरंगें हमारे कान के पर्दो से गुज़रती हैं, तब पर्यों में गति होने लगती है।

यह गति स्नायु-आवेगों में बदल जाती है जो हमारे मस्तिष्क में जाकर हमें यह बताते हैं कि हम ध्वनि सुन रहे हैं। क्या ऐसा यांत्रिक कान का पर्दा नहीं बनाया जा सकता जो ध्वनि-आवेगों को बिजली के आवेगों में बदल दे? इन बिजली के आवेगों को तार द्वारा ले जाकर किसी प्रकार के यांत्रिक ध्वनि उत्पादक उपाय से फिर ध्वनि में परिवर्तित किया जा सकता था।

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बडी कठिनाइयों के बाद श्री बेल ने एक यांत्रिक कान का पर्दा बना लिया। इसमें एक छोटा डायाफ्राम था, जिसके पीछे कार्बन के बहुत छोटे-छोटे दाने भरे हुए थे। कार्बन के इन दानों में कुछ बिजली-प्रतिरोध की मात्रा थी और इन्हे बिजली-बैटरी से जोड़ देने पर ये बिजली की धारा की एक सुनिश्चित मात्रा (या इलेक्ट्रान की सुनिश्चित संख्या) ही अपने में से गुजरने देते। पर यदि डायाफ्राम को अन्दर को धकेल दिया जाए तो कार्बन के दाने एक-दूसरे से अधिक भिड़ जाते जिससे उनमें पहले से अधिक संस्पर्श-बिन्दु हो जाते।

तब ये अतिरिक्त संस्पर्श-बिन्दु अधिक इलेक्ट्रानों या बिजली की धारा को गुज़रने देते। यदि डायाफ्राम को बाहर को खींच लिया जाए तो कार्बन के दानों के लिए अधिक स्थान हो जाएगा और दानों के बीच कम संस्पर्श-बिन्दु रह जाएंगे, और इस प्रकार कम इलेक्ट्रान प्रवाहित हो सकेंगे।

तो, यह टेलीफोन का ट्रांसमीटर वह भाग है जिसमें आप बोलते है। जब ऊंची और नीची दाबवाले क्षेत्र या ध्वनि तरंगे डायाफ्राम पर चोट करती हैं, तब वह अन्दर और बाहर को चलता है, और पहले अधिक और फिर कम बिजली की धारा गुजरने देता है।

इसका अर्थ यह हुआ कि ऊंची दाब और नीची दाबवाले क्षेत्र या ध्वनि तरंगे डायाफ्राम पर चोट करती हैं, तब वह अन्दर और बाहर को चलता है, और पहले अधिक और फिर कम बिजली की धारा गुज़रने देता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ऊंची दाब और नीची दाबवाले क्षेत्र पहले सबल और फिर दुर्बल बिजली आवेगों में परिवर्तित होते है।

रिसीवर में बदलती हुई धारा-शक्तिवाले ये बिजली के आवेग फिर ध्वनि में बदल जाते हैं। रिसीवर में लोहे की एक पतली पतरी या डायाफ्राम होता है, जिसके नीचे एक चुम्बक पर लिपटी हुई छोटी-सी तार की कुण्डली होती है। ट्रांसमीटर से आनेवाली धारा तार की इस कुण्डली में से गुजरती है और चुम्बक की शक्ति को कम-अधिक करती है।

जब धारा सबल होती है, तब चुम्बकत्व भी सबल होता है। जब धारा दुर्बल होती है, तब चुम्बकत्व भी दुर्बल होता है। जब चुम्बकत्व सबल होता है, तब लोहे का डायाफ्राम भीतर को खिंच जाता है ; और जब चुम्बकत्व दुर्बल हो जाता है, तब वह बाहर को चला जाता है।

इस प्रकार धारा की मात्रा (ट्रांसमिटर-डायाफ्रम के चलने के अनुसार) जैसे-जैसे घटती-बढ़ती है, वैसे-वैसे रिसीवर का डायाफ्राम हवा के अणुओं से टकराता है और उनमें गति पैदा करके ऊंची दाब और नीची दाबवाले क्षेत्र ट्रांसमिटर डायाफ्राम में कम्पन पैदा करने वाले ऊंची दाब और नीची दाबवाले क्षेत्रों या वनि की काफी ठीक नकल होते हैं। जब आप टेलीफोन क्षेत्रो या ध्वनि की काफी ठीक नकल होते हैं। जब आप टेलीफोन के ट्रांसमीटर में ‘हैलो’ कहेंगे, तब लाइन के दूसरे सिरे पर रिसीवर का डायाफ्राम कम्पन करेगा और ‘हैलो’ की आवाज़ पैदा करेगा।


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4 thoughts on “full Story on Telephone ka Avishkar| टेलीफोन का आविष्कार”

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