1 Essay on War International Problem | युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय समस्या पर निबंध

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युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय समस्या पर निबंध – Essay on War International Problem (850 Words)

प्रस्तावना

यद्यपि विचारको ने मानव-जीवन को युद्ध का मैदान कहा है। डॉ. चन्द्रशेखर भटट ने कहा कि जिसमें वे ही जीवित रहने के अधिकारी हैं जो इस संघर्ष में पार उतरते हैं। फिर युद्ध की पुरातन समस्या है। जहाँ यह कहने वाले लोग होते हैं कि ‘मेरा पक्ष सत्य है’ वहाँ युद्ध सम्भावी हो जाता है। ऐसी प्रवत्ति वाले लोग कर और रहेंगे भी।

ऐसी स्थिति में युद्ध की सम्भावना सदैव रही है और रहेगी। महाभारत के यद्ध में यद से मिलाकर श्री कृष्ण ने यही समझाया कि अपने धर्म को देखते हुए तुझे युद्ध-रूप कर्म से विचलित नहीं होना चाशित युद्ध पुरातन है, इसका पूर्णतः समाधान नहीं है। यह मनीषियों की चिन्ता का विषय रहा है।

युद्धों में जन और धनहानि

कोई भी देश निरन्तर युद्ध में संलग्न रहता है तो दुर्बल हो जाता है। युद्ध में महापुरुषों के स्वाहा हो जाने पर उनका अभाव तब जब खटकता है जब गौरवमयी परम्परा पर प्रश्न-चिह्न लग जाता है। जो देश निरन्तर युद्ध में लगे रहे वे प्रगति के पथ से हटकर प्रतिस्पर्दा की दौड मै वर्षों पीछे रहकर हीन और ग्लानि के बोझ से दबते चले गए। ऐसे बहुत से देश ऐश्वर्य के चरम शिखर पर थे वे युद्ध के बाद पतन के गर्त में जा गिरे।

द्वितीय-विश्वयुद्ध के समय अमेरिका द्वारा गिराए जापान में अणुबम जन-और धन हानि की कहानी कहता है जिसमें नागासाकी और हिरोशिमा सर्वथा धूल में मिल गए। भारत और पाकिस्तान के युद्धों के बाद यही पता चलता है कि चाहे कोई हारे, कोई जीते, हानि दोनों की होती है। अपार जन और धन हानि देशों की अनिवार्य नियति होती है। कितनी ही माताओं की गोद सूनी हो जाती है, कितनी ही स्त्रियों के सिन्दूर पुछ जाते हैं, कितने ही बहनों के भाई स्वाहा हो जाते हैं। देश का आर्थिक ढाँचा पंगु हो जाता है।

मानव-सभ्यता का विनाश

युद्ध विशारद मनीषी ने कहा है कि युद्ध की भयानकता को जिन व्यक्तियों ने देखा है, भुगता है वे कभी नहीं चाहते हैं कि युद्ध हो। फिर भी युद्ध में संलग्न होना पड़ता है। युद्ध की भयनकता का अनुमान केवल कल्पनाओं से नहीं किया जा सकता है। युद्ध की पैशाचिक प्रवृत्ति, सभ्यता को युद्ध के क्रूर चक्र में समेट लेती है। प्रत्येक युद्ध मानवीय सभ्यता और संस्कृति के प्राचीन स्थलों को अपनी आग में भस्म कर देता है।

पुरानी और प्राचीन सभ्यता, संस्कृति में परिवर्तन आने लगता है। युद्धों की सम्भावना के कारण जो आण्विक शस्त्र इकट्ठे किए जा रहे हैं उसे देखकर ऐसा लगता है कि एक दिन अवश्य ही समूची मानवता युद्ध की चिनगारी में झुलस कर रह जाएगी। ऐसा लगता है सम्पूर्ण मानवता उधार की जिन्दगी जी रही है। अतः यह यथार्थ है कि युद्धों की कल्पना मात्र ही अति भय उत्पादक होती है। युद्धों में सदियों से निर्मित सभ्यताओं और संस्कृतियाँ का विनाश होता रहा है।

मानवीय मूल्यों का ह्रास

यह सत्य है कि परिवर्तन एक अविराम प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में युद्धों से तीव्रता आ जाती है। इस तरह युद्ध मनुष्य के स्वभाव और विचारों को प्रभावित करते हैं। हम अपने देश की बात करते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि स्वतन्त्र भारतवर्ष के रूप में हमें जो मिला वह अतीत के गौरव का कंकाल मात्र था। नयी पीढ़ी के नवयुवकों को पुराना सब कुछ हास्यास्पद लगने लगा। अपनी सम्पूर्ण परम्पराओं को छोडकर नई संस्कृति के निर्माण में लग गया।

इस प्रकार युद्ध की विभीषिका सहन कर दशा में नवीन जीवन-दर्शन का विकास होता है। नवीन धारणाओं और मान्यताओं का जन्म होता है। प्रेम करुणा दया, सेवा आदि के स्थान पर घणा, द्वेष पनपते हैं। आदिम प्रवृत्ति पनपने लगती है। परस्पर विश्वास की भावना नष्ट होने लगती है। नैतिकता के सारे मापदण्ड धराशायी हो जाते हैं।

विश्व-शान्ति में रुकावट

जब दो देशों में युद्ध होता है तो यही आशंका बनी रहती है कि कहीं बड़े युद्ध में न बदल जाए। ऐसे समय में परस्पर विद्वेष की भावना लिए बाहरी रूप से मित्रता का नाटक करते हैं और आन्तरिक रूप से तनाव की ओर बढ़ते जाते हैं। वर्तमान में शस्त्रों का ढेर देशों के पास इतना पर्याप्त है कि उसका कुछ अंश ही सम्पूर्ण मानवता को राख में बदलने में समर्थ है। इनके रहते विश्व शान्ति की बातें करना हास्पास्पद ही लगती हैं।

सामरिक शक्ति के रहते शान्ति जैसी कल्पनाका अन्त हो गया है। इसके विपरीत देशों में पारस्परिक विश्वास जैसा कोई विचार नहीं रह गया है। यह बहुत दूर तक भावष्य में सम्भव भी नहीं दिखाई देता है। छोटे देशो को बड़े देश अपने मातहत रखना चाहते हैं। इस कारण छोटे देशों की विचार धारा में विश्वास रहा ही नहीं है।

उपसंहार

निष्कर्ष में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि एक ओर देशों की बढ़ती हुई सामरिक शक्ति से सत्ताधीश सम्पूर्ण मानवता के भविष्य के प्रतिचिन्तित है तो वही देश दूसरी ओर निरन्तर सामरिक शक्ति और बढ़ा रहे हैं।

अतः दो देशों के बीच सामान्य सी युद्ध की चिनगारी भय उत्पन्न करती है। सभी जानते हैं कि युद्ध विनाशकारी होता है फिर भी आदिम प्रवत्ति मनुष्य से अलग नहीं होती है और देश युद्ध की ओर चल पड़ते है। इस तरह बढ़ते हुए शस्त्रो और देशोंकी महत्त्वांकाक्षा से युद्ध अन्तर राष्ट्रीय समस्या है जिसका अन्त नहीं दिखाई देता है।


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