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Essay on karm pradhaan vishv rachi raakha – कर्म प्रधान विश्व रचि राखा
Karm का अर्थ एवं लाभ
कर्म और कर्तव्य दो ऐसे शब्द हैं जो लगभग समानार्थी प्रतीत होते हैं परंतु ऐसा नहीं है। वस्तुतः जो हमें करना चाहिए वह हमारा कर्तव्य है और जब हम उसे पूरा करते हैं तब माना जाता है कि हमने कर्म किया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हमारा कर्म तभी परिणामदायक होता है जब उसे करने के पीछे हमारी अच्छी भावना होती है।
श्रीमद्भगवद्गीता में एक प्रसंग के अंतर्गत श्रीकृष्ण ने कहा- “योगः कर्मसु कौशलम्” इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कर्म करना योग है। इसका अर्थ है- कर्म करने की विशेष कुशलता का नाम योग है। बिना कशलता का ध्यान रखे जो कार्य किया जाता ह उसे योग नहीं कहा जा सकता। अत: कुशलता से किया गया कार्य ही कर्म है।
अकर्म से हानि
Karm न करने से कई हानियाँ हैं। कहा गया है कि अकर्म का आशय कर्म का अभाव नहीं बल्कि कर्तव्य का क्षय है। कर्महीन व्यक्ति जीवन के हर मोड़ पर असफल होता है। वह सदैव परावलंबी होता है। ऐसा व्यक्ति सामाजिक प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, वैभव से स्वयं तो वंचित रहता ही है अपने परिवार को भी इससे वंचित रखता है। इसके विपरीत परिश्रमी व्यक्ति अपने साथ-साथ परिवार, समाज एवं राष्ट्र की प्रगति को अपना योगदान देता है।
कर्म करने या न करने के संदर्भ में यह समझना ज़रूरी है कि कर्म वही लोग करते हैं जिनमें दायित्व बोध होता है। लापरवाह लोग अपने कार्य को अधूरे मन से करते हैं जिसका लाभ नहीं होता है और बेपरवाह लोग हर कार्य को कल पर टालते हैं। ऐसे लोग राष्ट्र के विकास में अवरोधक होते हैं।
समाधान के उपाय
आज हमारे देश में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ उत्पादन कार्य कर रही हैं। इनमें लाखों की संख्या में लोग कार्य करते हैं। भारत प्रगति कर रहा है। विज्ञान प्रौद्योगिकी व नवीन तकनीकी के क्षेत्र में हम आगे बढ़ रहे हैं। यह सब मात्र कर्म का ही परिणाम है।
भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में हमें जो भी प्रगति दिख रही है वह कर्मवादियों की सोच एवं कार्य का ही परिणाम है। कर्म के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कवि राम नरेश त्रिपाठी ने प्राकृतिक उपादानों से भी सीख लेने को कहा। उन्होंने लिखा
जग में सचर-अचर जितने हैं सारे कर्म निरत हैं,
धुन है एक-न-एक सभी की सबके निश्चित व्रत हैं।
जीवन भर आतप सह वसुधा पर छाया करता है,
तुच्छ पत्र के भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि कर्मठतापूर्ण जीवन सार्थक एवं सफल है जबकि कर्महीन होकर जीवन बिताना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। अतः हमें कर्मपथ पर निरंतर बढ़ते रहना चाहिए।
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